Monday, December 14, 2009

यह ब्लॉग क्यों ?

यह ब्लॉग क्यों ?

हमारे देश में अधिकतर लोग यह मानते हैं कि वे शासित होने के लिए ही पैदा हुए हैं. उनका मानना है कि बुरे लोगों की जगह कुछ अच्छे लोग शासन में आ जाएं तो सब ठीक हो जाएगा. साथ ही एक वर्ग ऐसा है, जो बुरा नहीं है लेकिन मानता है कि अगर बुरे लोगों की जगह मैं खुद सत्ता में आ जाउं तो सब ठीक कर दूंगा.

इस ब्लाग का मकसद इस भ्रम को दूर करना है कि इंसान शासित होने के लिए है और समाज की वर्त्तमान राष्ट्रीय-अन्तराष्ट्रीय समस्याओं का निराकरण अच्छे लोगों के शासन में आने से हो जायेगा. यह ब्लाग स्वशासन (स्व-तंत्र-ता) की स्थापना में चलाए जा रहे अभियान का एक हिस्सा है. इसके तहत गांवों और शहरों में यह प्रयास है कि लोग अपने विकास और कल्याण की योजनाएं खुद चलाएं. इसके लिए कानूनी बदलाव की भी ज़रूरत पड़ेगी. अभियान का मकसद है कानूनी बदलाव के लिए ठोस धरातल तैयार करना. स्थापित करना कि स्वशासित अर्थात लोक नियंत्रित व्यवस्था कैसी होती है और क्यों इसमें भ्रष्टाचार, ‘शोषण, प्रदुषण जैसी समस्याओं का निराकरण आसानी से संभव होगा. शायद यही वह सपना था जो गांधी ने ग्राम स्वराज कहते हुए देखा था.

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क्या भारत सच में लोकतंत्र है?

  • यदि सरकारी टीचर स्कूल में पढ़ाने न आए तो आप क्या कर सकते हैं?
  • यदि डॉक्टर मरीज का इलाज न करे तो आप क्या कर सकते हैं?
  • यदि राशन दुकानदार सरेआम आपके राशन की चोरी करे तो आप क्या कर सकते हैं?
  • यदि पुलिस वाला हमारी शिकातय पर कार्रवाई न करे तो आप क्या कर सकते हैं?
  • यदि सरकारी इंजीनियर ठेकेदार से रिश्वत खाकर घटिया सड़क पास कर दे जो चंद दिनों में टूट जाए तो आप क्या कर सकते हैं?
  • आप क्या कर सकते हैं यदि सफाईकर्मी अपना काम ठीक से नहीं करते और आपका इलाका बदबू मारता है?

ज्यादा से ज्यादा हम बड़े अफसरों को शिकायत करते हैं लेकिन हमारी शिकायतों पर कोई सुनवाई नहीं होती। कुल मिलाकर, सरकारी स्कूलों में न आने वाले शिक्षकों या सफाई न करने वाले सफाईकर्मी, राशन दुकानदार, सरकारी ठेकेदार, नेताओं, पुलिसवालों या अफसरों पर हमारा कोई नियंत्रण नहीं है।
और यही कारण है कि आजादी के 62 साल बाद भी देश में इतनी अशिक्षा और गरीबी है। लोग टीबी जैसी सामान्य बीमारी से मर रहे हैं। लोग भूखे पेट सोने को मजबूर हैं। सड़कें टूटी हुई हैं और शहर गंदगी का ढेर बन गए हैं।
कहने को तो लोकतंत्र में हम मालिक हैं। लेकिन सच्चाई ये है कि इसमें हमारी भूमिका सिर्फ 5 साल में एक बार वोट देने तक ही सीमित है और अगले 5 साल हम नेताओं और असफरों के सामने गिड़गिड़ाते रहते हैं जो हमारी एक नहीं सुनते।

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