Monday, October 11, 2010

एक गांव जहां इस बार पंचायत चुनाव में मुफ्त शराब नहीं बंट रही...

चुनाव में शराब बंटने की राष्ट्रीय समस्या का समाधान क्या हो सकता है इसका जवाब दिया है शौलाना गांव के लोगों ने. दिल्ली से मात्र 50 किलोमीटर दूर, गाज़ियाबाद ज़िले के इस गांव में इस बार पंचायत चुनाव के दौरान प्रत्याशी शराब नहीं बांट रहे हैं.

अच्छी बात यह है कि शौलाना गांव में जो कुछ हुआ वह किसी भी गांव में हो सकता है. क्योंकि न तो इस बार वहां चुनाव लड़ रहे सारे प्रत्याशी  सात्विक हैं और ऐसा भी नहीं है कि पूरा गांव अचानक एक हो गया है और  शराब न पीने की कसम खा ली है.

हुआ सिर्फ इतना है कि 800 परिवारों के इस गांव में करीब 50 परिवार ऐसे हैं जो मानते हैं कि मुफ्त की शराबखोरी गांव का माहौल बिगाड़ देगी. इसलिए उन्होंने आपस में मिलकर तय किया कि जो उम्मीदवार गांव में किसी को भी शराब पिलाएगा या बांटेगा उसे वोट नहीं देंगे. और यह सन्देश चुनाव लड़ रहे सभी 9 प्रत्याशियों को दे दिया गया है. इन 50 परिवारों के लोग इस पर तो एकमत नहीं हैं कि किसे वोट देना है. लेकिन इस पर एकमत हैं कि किसे वोट नहीं देना है. इन परिवारों के कुल मिलाकर करीब 300 वोट हैं. 2000 वोटों के गांव में 300 वोटरों की इस एकता ने दबाव बना दिया है कि प्रधान पद का  प्रत्याशी शराब न बांटें.

पूरे उत्तर प्रदेश में पंचायत चुनाव हो रहे हैं और तीन दिन बाद इस गांव में भी मतदान होगा. प्रचार चरम पर है. इस मुहिम का संचालन कर रहे एक ग्रामवासी डा. मुकेश के मुताबिक पिछले पंचायत चुनाव में हरेक प्रत्याशी ने करीब 3 लाख रुपए की शराब बांटी थी. शाम के समय गली में खुले आम शराब की बोतलें बंटती थीं और वे परिवार जिनमें कोई शराब नहीं पीता था, वे भी मुफ्त में मिल रही बोतल रख लेते थे ताकि किसी रिश्तेतेदार को दी जा सके.  लेकिन इस बार 9 में से सिर्फ 2 उम्मीदवार अपने समर्थकों को चोरी चुपके शराब पिला रहे हैं. 

गांव में गायत्री परिवार, रामकृष्ण मिशन आदि कई समाज सुधार संगठन कई साल से काम कर रहे थे लेकिन चुनावी गर्मी में लोगों को शराब न लेने, या प्रत्याशियों को शराब न बांटने के लिए समझाना मुश्किल था. लेकिन गांव का भला चाहने वाले महज़ चन्द परिवारों की समझदारी से माहौल बदल गया है. गांव में रोज़ाना शाम को ये लोग बैठक करते हैं और आपस में गांव के  माहौल पर चर्चा करते हैं. इस मुहिम में सबसे अहम भूमिका गांव की महिलाओं ने निभाई है.

इस गांव की यह सफलता मीडिया के लिए कोई बड़ी खबर नहीं बनी है. ज़ाहिर है देश के नीति नियन्ताओं तक भी इसकी बात नहीं पहुंचेगी. लेकिन आस पास के  गांवों के लोग इस गांव से कुछ सीखना चाह रहे हैं. शाम की बैठकों में कभी कभी आसपास के गांवों से भी लोग आते हैं.

Wednesday, September 29, 2010

खुली बैठक में बदला राज

रात के आठ बज रहे थे। यह वक्त देश के ज्यादातर गांवों की तरह महेन्द्रगढ़ के बेवल गांव के लिए भी खा-पीकर सोने का था। लेकिन उस रात पूरा गांव जाग रहा था। इससे ज्यादा अजीब बात थी कि ज़िले के दो आला अधिकारियों की भी आंखें थकने के बावजूद खुली रहने के लिए मजबूर थी। 13 सितम्बर 2010 की उस रात बेवल गांव में जो कुछ हुआ, उसने पूरे देश में एक नई सुबह की उम्मीद जगा दी है। गांव में हुई इस ऐतिहासिक घटना का गवाह बनकर लौटे विनोद अग्रहरि की रिपोर्ट-  

हरियाणा के महेन्द्रगढ़ ज़िला मुख्यालय से क़रीब तीस किलोमीटर दूर स्थित बेवल गांव एक पारंपरिक गांव की सारी ख़ूबियों को समेटे हुए है। एक ऐसा गांव, जहां विकास कागज़ों में तो दौड़ता है मगर गांव की हालत देखकर लगता है कि वह बैलगाड़ी पर सवार है। इलाक़े की बलुई मिट्टी बग़ैर ठीक से पानी पिए गांव का पेट नहीं भरती है। इसके बावजूद गांव की ज्यादातर आबादी के पास खेती पर निर्भर रहने के अलावा कोई विकल्प नहीं है।

Sunday, September 5, 2010

गोपालपुरा: रेगिस्तान के गांव में `स्वराज´

राजस्थान के चुरू ज़िले में बसा गोपालपुरा गांव बताता है कि ग्राम सभाओं के माध्यम से विपरीत परिस्थितियों में भी सकारात्मक काम न सिर्फ किए जा सकते हैं बल्कि इन्हें बरकरार भी रखा जा सकता है। इस गांव की पिछली सरपंच ने ग्राम सभाओं का जो सिलसिला शुरू किया वह अगली पंचायत में भी जारी है। अक्सर देखा गया है कि पंचायत चुनाव में अगर सरपंच बदल गया तो समझो कि गांव की राजनीति की धुरी बदल जाती है। लेकिन गोपालपुरा इसका अपवाद है क्योंकि यहां की पंचायत का कामकाज पंच और सरपंच नहीं बल्कि ग्राम सभाओं में तय होता है। और यही वजह है कि फरवरी 2010 में हुए पंचायत चुनाव में गांव का सरपंच बदलने के बाद भी गांव में ग्राम सभा की ही राजनीति चल रही है।

Saturday, September 4, 2010

सोड़ा गांव में लौटा चौपालों का दौर

राजस्थान के टौंक ज़िले के सोड़ा गांव में एक पेड़ के नीचे चौपाल सजी है। गांव के करीब 70-80 लोग बैठकर राशन के मुद्दे पर बहस कर रहे हैं। किसी ने बैठक में मुद्दा उठाया था कि दुकान खुलने और राशन के आने-बंटने का समय पता ही नहीं चलता। हालांकि इस बारे में सरकारी नियम भी हैं लेकिन उनकी न तो जानकारी है और शायद न ही ज़रूरत। आरोप लगाने वाले को तो सिर्फ इतनी जानकारी चाहिए कि राशन की दुकान में अगले महीने राशन कब मिलेगा। राशन दुकानदार खुद बैठक में नहीं है लेकिन उसके चाचा उसका प्रतिनिधि कर रहे हैं। ग्राम सभा में सबके सामने मुद्दा उठाए जाने से वे खफा हो जाते है और ज़ोर ज़ोर से बोलने लगते हैं। लेकिन उनकी दबंगई काम नहीं आती क्योंकि गांव के ज्यादातर लोग आरोपी के साथ खुलकर नहीं बोल रहे थे तब भी थे तो उसी के साथ। बहस बढ़ती है तो कई लोग बीच बचाव करते हैं कि भई बन्दे ने सिर्फ पूछा है आपका नाम लेकर कोई आरोप थोड़े ही लगाया है। तभी गांव की सरपंच इसका समाधान सुझाती है कि राशन दुकान के सामने एक बोर्ड लगा दिया जाए और उस पर दुकान खुलने का वास्तविक दिन, समय और राशन मिलने का भी वास्तविक दिन व समय लिख दिया जाए। साथ ही यह भी सुनिश्चित किया जाए कि बोर्ड पर लिखे हुए दिन - समय पर लोग आएं तो उन्हें राशन मिले। सारी सभा एकदम इससे सहमत होती है और हाथ उठाकर इसे मंज़ूर करती है। राशन दुकानदार के प्रतिनिधि भी इससे सहमत हो जाते हैं। गांव वालों को भरोसा है कि चाचा ने ग्राम सभा में वादा किया है तो अब ये काम ज़रूर हो जाएगा।

Friday, September 3, 2010

गंगा देवी पल्ली गाँव : ज़िन्दगी बदलनी है तो खुद कदम उठाइये

आंध्र प्रदेश के वारंगल जिले की मचापुर ग्राम पंचायत का एक छोटा सा पुरवा था `गंगा देवी पल्ली´। ग्राम पंचायत से दूर और अलग होने के चलते विकास की हवा या सरकारी योजनाएं यहां के लोगों तक कभी नहीं पहुंची। बहुत सी चीजें बदल सकती थी लेकिन नहीं बदली क्योंकि लोग प्रतीक्षा किये जा रहे थे… कि कोई आएगा और उनकी जिन्दगी सुधरेगा। उसमें बदलाव की नई हवा लाएगा। करीब दो दशक पहले गंगा देवी पल्ली के लोगों ने तय किया कि वे खुद एक जुट होगें और बदलाव की वो हवा स्वयं ले आयेगे। जिसका वो अबतक सिर्फ इन्तजार कर रहे थे। आज गंगा देवी पल्ली एक प्ररेणादायक उदाहरण है कि कैसे एक छोटे से पुरवे को आदर्श गांव बनाया जा सकता है।

Thursday, September 2, 2010

भौगोलीकरण का जवाब : कुटुंबक्कम

तमिलनाडु़ की राजधानी चेन्नई से करीब 40 किलोमीटर दूर बसा गांव कुटुंबकम पिछले 15 साल से ग्राम स्वराज के रास्ते पर चल रहा है। 15 साल पहले तक यहां हर वो बुराई थी जो देश के किसी भी अन्य गांव में देखी जा सकती है। शराब पीना, शराब पीकर घर में मारपीट, गांव में आपस में झगड़े, छुआछूत, गन्दगी आदि आदि। गांव में 50 फीसदी आबादी दलितों की है लेकिन जातियों के बंटवारे इतने गहरे थे कि नीची कही जाने वाली जातियों को कुछ रास्तों पर आने, कुओं से पानी लेने आदि तक की अनुमति नहीं थी। और इन सबके चलते एक बरबाद गांव। हर तरफ बेरोज़गारी और गरीबी की मार।
लेकिन आज इस गांव में आपस के झगड़े लगभग मिट गए हैं। जातियों की दीवारें अब काफी छोटी हो गई हैं। गांव में नए बने घरों में अब वही परिवार एकदम पड़ोस में रह रहे हैं जो कल तक नीची और ऊंची जाति के झगड़े में उलझे थे। यहां तक कि गांव में अन्तरजातीय विवाह भी हुए हैं। शराब पीकर घर में मारपीट करने का चलन अब थम चुका है…