Wednesday, September 29, 2010

खुली बैठक में बदला राज

रात के आठ बज रहे थे। यह वक्त देश के ज्यादातर गांवों की तरह महेन्द्रगढ़ के बेवल गांव के लिए भी खा-पीकर सोने का था। लेकिन उस रात पूरा गांव जाग रहा था। इससे ज्यादा अजीब बात थी कि ज़िले के दो आला अधिकारियों की भी आंखें थकने के बावजूद खुली रहने के लिए मजबूर थी। 13 सितम्बर 2010 की उस रात बेवल गांव में जो कुछ हुआ, उसने पूरे देश में एक नई सुबह की उम्मीद जगा दी है। गांव में हुई इस ऐतिहासिक घटना का गवाह बनकर लौटे विनोद अग्रहरि की रिपोर्ट-  

हरियाणा के महेन्द्रगढ़ ज़िला मुख्यालय से क़रीब तीस किलोमीटर दूर स्थित बेवल गांव एक पारंपरिक गांव की सारी ख़ूबियों को समेटे हुए है। एक ऐसा गांव, जहां विकास कागज़ों में तो दौड़ता है मगर गांव की हालत देखकर लगता है कि वह बैलगाड़ी पर सवार है। इलाक़े की बलुई मिट्टी बग़ैर ठीक से पानी पिए गांव का पेट नहीं भरती है। इसके बावजूद गांव की ज्यादातर आबादी के पास खेती पर निर्भर रहने के अलावा कोई विकल्प नहीं है।

Sunday, September 5, 2010

गोपालपुरा: रेगिस्तान के गांव में `स्वराज´

राजस्थान के चुरू ज़िले में बसा गोपालपुरा गांव बताता है कि ग्राम सभाओं के माध्यम से विपरीत परिस्थितियों में भी सकारात्मक काम न सिर्फ किए जा सकते हैं बल्कि इन्हें बरकरार भी रखा जा सकता है। इस गांव की पिछली सरपंच ने ग्राम सभाओं का जो सिलसिला शुरू किया वह अगली पंचायत में भी जारी है। अक्सर देखा गया है कि पंचायत चुनाव में अगर सरपंच बदल गया तो समझो कि गांव की राजनीति की धुरी बदल जाती है। लेकिन गोपालपुरा इसका अपवाद है क्योंकि यहां की पंचायत का कामकाज पंच और सरपंच नहीं बल्कि ग्राम सभाओं में तय होता है। और यही वजह है कि फरवरी 2010 में हुए पंचायत चुनाव में गांव का सरपंच बदलने के बाद भी गांव में ग्राम सभा की ही राजनीति चल रही है।

Saturday, September 4, 2010

सोड़ा गांव में लौटा चौपालों का दौर

राजस्थान के टौंक ज़िले के सोड़ा गांव में एक पेड़ के नीचे चौपाल सजी है। गांव के करीब 70-80 लोग बैठकर राशन के मुद्दे पर बहस कर रहे हैं। किसी ने बैठक में मुद्दा उठाया था कि दुकान खुलने और राशन के आने-बंटने का समय पता ही नहीं चलता। हालांकि इस बारे में सरकारी नियम भी हैं लेकिन उनकी न तो जानकारी है और शायद न ही ज़रूरत। आरोप लगाने वाले को तो सिर्फ इतनी जानकारी चाहिए कि राशन की दुकान में अगले महीने राशन कब मिलेगा। राशन दुकानदार खुद बैठक में नहीं है लेकिन उसके चाचा उसका प्रतिनिधि कर रहे हैं। ग्राम सभा में सबके सामने मुद्दा उठाए जाने से वे खफा हो जाते है और ज़ोर ज़ोर से बोलने लगते हैं। लेकिन उनकी दबंगई काम नहीं आती क्योंकि गांव के ज्यादातर लोग आरोपी के साथ खुलकर नहीं बोल रहे थे तब भी थे तो उसी के साथ। बहस बढ़ती है तो कई लोग बीच बचाव करते हैं कि भई बन्दे ने सिर्फ पूछा है आपका नाम लेकर कोई आरोप थोड़े ही लगाया है। तभी गांव की सरपंच इसका समाधान सुझाती है कि राशन दुकान के सामने एक बोर्ड लगा दिया जाए और उस पर दुकान खुलने का वास्तविक दिन, समय और राशन मिलने का भी वास्तविक दिन व समय लिख दिया जाए। साथ ही यह भी सुनिश्चित किया जाए कि बोर्ड पर लिखे हुए दिन - समय पर लोग आएं तो उन्हें राशन मिले। सारी सभा एकदम इससे सहमत होती है और हाथ उठाकर इसे मंज़ूर करती है। राशन दुकानदार के प्रतिनिधि भी इससे सहमत हो जाते हैं। गांव वालों को भरोसा है कि चाचा ने ग्राम सभा में वादा किया है तो अब ये काम ज़रूर हो जाएगा।

Friday, September 3, 2010

गंगा देवी पल्ली गाँव : ज़िन्दगी बदलनी है तो खुद कदम उठाइये

आंध्र प्रदेश के वारंगल जिले की मचापुर ग्राम पंचायत का एक छोटा सा पुरवा था `गंगा देवी पल्ली´। ग्राम पंचायत से दूर और अलग होने के चलते विकास की हवा या सरकारी योजनाएं यहां के लोगों तक कभी नहीं पहुंची। बहुत सी चीजें बदल सकती थी लेकिन नहीं बदली क्योंकि लोग प्रतीक्षा किये जा रहे थे… कि कोई आएगा और उनकी जिन्दगी सुधरेगा। उसमें बदलाव की नई हवा लाएगा। करीब दो दशक पहले गंगा देवी पल्ली के लोगों ने तय किया कि वे खुद एक जुट होगें और बदलाव की वो हवा स्वयं ले आयेगे। जिसका वो अबतक सिर्फ इन्तजार कर रहे थे। आज गंगा देवी पल्ली एक प्ररेणादायक उदाहरण है कि कैसे एक छोटे से पुरवे को आदर्श गांव बनाया जा सकता है।

Thursday, September 2, 2010

भौगोलीकरण का जवाब : कुटुंबक्कम

तमिलनाडु़ की राजधानी चेन्नई से करीब 40 किलोमीटर दूर बसा गांव कुटुंबकम पिछले 15 साल से ग्राम स्वराज के रास्ते पर चल रहा है। 15 साल पहले तक यहां हर वो बुराई थी जो देश के किसी भी अन्य गांव में देखी जा सकती है। शराब पीना, शराब पीकर घर में मारपीट, गांव में आपस में झगड़े, छुआछूत, गन्दगी आदि आदि। गांव में 50 फीसदी आबादी दलितों की है लेकिन जातियों के बंटवारे इतने गहरे थे कि नीची कही जाने वाली जातियों को कुछ रास्तों पर आने, कुओं से पानी लेने आदि तक की अनुमति नहीं थी। और इन सबके चलते एक बरबाद गांव। हर तरफ बेरोज़गारी और गरीबी की मार।
लेकिन आज इस गांव में आपस के झगड़े लगभग मिट गए हैं। जातियों की दीवारें अब काफी छोटी हो गई हैं। गांव में नए बने घरों में अब वही परिवार एकदम पड़ोस में रह रहे हैं जो कल तक नीची और ऊंची जाति के झगड़े में उलझे थे। यहां तक कि गांव में अन्तरजातीय विवाह भी हुए हैं। शराब पीकर घर में मारपीट करने का चलन अब थम चुका है…

Wednesday, September 1, 2010

सामूहिक निर्णय लेने की ताकत पर मुस्कराता गांव बख्तावरपुरा

दिल्ली झुंझनू मार्ग पर, झुंझनू से करीब 20 किलोमीटर पहले पड़ने वाला एक गांव, यहां की साफ सफाई, चमचमाती हुई सड़क, बरबस ही यहां से गुजरने वालों का ध्यान अपनी ओर खींचती है। रास्ते में एक बोर्ड लगा है जिस पर लिखा है `मुस्कराईए कि आप राजस्थान के गौरव बख्तावरपुरा गांव से गुजर रहे हैं´।
रुककर गांववालों से बात करते हैं तो पता चलता है कि इस गांव में आज पानी की एक बून्द भी सड़क पर या नाली में व्यर्थ नहीं बहती। हर घर से निकलने वाले पानी की एक एक बून्द ज़मीन में रिचार्ज कर दी जाती है। इसके लिए लगभग हर दो-तीन घरों के सामने सड़क के नीचे पानी को ज़मीन में रिचार्ज करने वाली सोख्ता कुईंया बना दी हैं। गांव में कई बड़े कुएं बने हैं जहां बारिश के पानी की एक-एक बून्द इकट्ठा की जाती है। ग्राम सरपंच महेन्द्र कटेवा बताते हैं कि गांव की ज़रूरतों के लिए हर रोज़ साढ़े चार लाख लीटर पानी ज़मीन से निकाला जाता है लेकिन इसमें से करीब 95 फीसदी वापस उसी दिन रिचार्ज कर दिया जाता है। पानी की कमी से जूझ रहे राजस्थान के गांवों के लिए यह एक बड़ी घटना है।