Monday, December 14, 2009

यह ब्लॉग क्यों ?

यह ब्लॉग क्यों ?

हमारे देश में अधिकतर लोग यह मानते हैं कि वे शासित होने के लिए ही पैदा हुए हैं. उनका मानना है कि बुरे लोगों की जगह कुछ अच्छे लोग शासन में आ जाएं तो सब ठीक हो जाएगा. साथ ही एक वर्ग ऐसा है, जो बुरा नहीं है लेकिन मानता है कि अगर बुरे लोगों की जगह मैं खुद सत्ता में आ जाउं तो सब ठीक कर दूंगा.

इस ब्लाग का मकसद इस भ्रम को दूर करना है कि इंसान शासित होने के लिए है और समाज की वर्त्तमान राष्ट्रीय-अन्तराष्ट्रीय समस्याओं का निराकरण अच्छे लोगों के शासन में आने से हो जायेगा. यह ब्लाग स्वशासन (स्व-तंत्र-ता) की स्थापना में चलाए जा रहे अभियान का एक हिस्सा है. इसके तहत गांवों और शहरों में यह प्रयास है कि लोग अपने विकास और कल्याण की योजनाएं खुद चलाएं. इसके लिए कानूनी बदलाव की भी ज़रूरत पड़ेगी. अभियान का मकसद है कानूनी बदलाव के लिए ठोस धरातल तैयार करना. स्थापित करना कि स्वशासित अर्थात लोक नियंत्रित व्यवस्था कैसी होती है और क्यों इसमें भ्रष्टाचार, ‘शोषण, प्रदुषण जैसी समस्याओं का निराकरण आसानी से संभव होगा. शायद यही वह सपना था जो गांधी ने ग्राम स्वराज कहते हुए देखा था.

———————————————————————————————————————

क्या भारत सच में लोकतंत्र है?

  • यदि सरकारी टीचर स्कूल में पढ़ाने न आए तो आप क्या कर सकते हैं?
  • यदि डॉक्टर मरीज का इलाज न करे तो आप क्या कर सकते हैं?
  • यदि राशन दुकानदार सरेआम आपके राशन की चोरी करे तो आप क्या कर सकते हैं?
  • यदि पुलिस वाला हमारी शिकातय पर कार्रवाई न करे तो आप क्या कर सकते हैं?
  • यदि सरकारी इंजीनियर ठेकेदार से रिश्वत खाकर घटिया सड़क पास कर दे जो चंद दिनों में टूट जाए तो आप क्या कर सकते हैं?
  • आप क्या कर सकते हैं यदि सफाईकर्मी अपना काम ठीक से नहीं करते और आपका इलाका बदबू मारता है?

ज्यादा से ज्यादा हम बड़े अफसरों को शिकायत करते हैं लेकिन हमारी शिकायतों पर कोई सुनवाई नहीं होती। कुल मिलाकर, सरकारी स्कूलों में न आने वाले शिक्षकों या सफाई न करने वाले सफाईकर्मी, राशन दुकानदार, सरकारी ठेकेदार, नेताओं, पुलिसवालों या अफसरों पर हमारा कोई नियंत्रण नहीं है।
और यही कारण है कि आजादी के 62 साल बाद भी देश में इतनी अशिक्षा और गरीबी है। लोग टीबी जैसी सामान्य बीमारी से मर रहे हैं। लोग भूखे पेट सोने को मजबूर हैं। सड़कें टूटी हुई हैं और शहर गंदगी का ढेर बन गए हैं।
कहने को तो लोकतंत्र में हम मालिक हैं। लेकिन सच्चाई ये है कि इसमें हमारी भूमिका सिर्फ 5 साल में एक बार वोट देने तक ही सीमित है और अगले 5 साल हम नेताओं और असफरों के सामने गिड़गिड़ाते रहते हैं जो हमारी एक नहीं सुनते।

गांवों में स्वराज अभियान


गांवों में गतिविधियों के तहत इस अभियान से जुड़े लोग गांव गांव जाकर लोगों को स्वराज के बारे में समझा रहे हैं. गांव के युवाओं को आगे लाकर उनके सामने प्रस्ताव स्वराज का रखा जाता है. अगर उन्हें लगता है कि इससे उनके गांव की व्यवस्था बेहतर हो सकेगी तो उनसे उस पर काम करने के लिए चर्चा की जाती है.
अभियान के तहत किसी तरह का विचार आरोपण अथवा केंद्रीय कार्यक्रम नहीं चलाया जाता.
हरेक गांव की अपनी समस्याएं हैं, उनके समाधान भी अलग ही होंगे जो खुद उन गांववालों की सोच के आधार गांव वालों द्वारा ही निकाले जाएंगे. अभियान की ‘शुरुआत के लिए एक स्टीकर गांव में उन घरों के मुख्य दरवाज़े पर लगाने के लिए दिया जाता है जिस घर में लोग इससे वाकिफ हों कि इसका मतलब क्या है. साथ ही एक हैंडबिल दिया जाता है जिसमें स्वराज के बारे में समझाया गया है.
लेकिन गांव में स्वराज लाने के लिए क्या करना होगा. कैसे ‘शुरुआत होगी, कौन क्या करेगा, इस बारे में खुद गांव के युवा निर्णय लेते हैं.
कुछ गांवों में खुद ग्राम प्रधान भी इससे सहमत होते हैं और पूरी बात सुनने के बाद मानते हैं कि उन्होंने इस दिशा में कुछ नहीं किया लेकिन अब करेंगे.
यह भी उल्लेखनीय है कि कुछ भी अचानक नहीं बदलेगा. लेकिन हमें उम्मीद है कि इन प्रयासों से स्वराज को समझने और चाहने वालों की संख्या बढ़ रही है. एक गांव में मीटिंग होती है तो आस पास के गांवों के भी युवा आकर अपने गांव में इस तरह की ‘शुरुआत करने का आग्रह करते हैं. यह स्वत: प्रमाण है.
नीचे के कुछ फोटोग्राफ हाल में हुई ग्राम स्वराज बैठकों के हैं. हमारा प्रयास है कि जल्द ही इससे जुड़ी विस्तृत जानकारी यहां उपलब्ध कराई जा सके.





इस वीडियो में मुज़फ्फरनगर ज़िले के एक गांव में पहली बैठक की कार्यवाही रिकार्ड है. इसमें स्वराज को समझाना, लोगों की प्रतिक्रिया और अंत में ग्राम प्रधान का ग्राम सभा कराने का ऐलान तक ‘शामिल है.







दिल्ली में स्वराज अभियान

दिल्ली में नगर निगम के दो पार्षदों ने अपने अपने वार्डों में एक अभूतपूर्व प्रयोग शुरू किया है। स्वराज अभियान के साथ मिलकर इन दोनों पार्षदों ने अपने वार्ड को `स्वराज` यानि लोगों का सीधा राज का मॉडल वार्ड बनाना शुरू किया है। इसके तहत दोनों वार्ड पार्षद अपने अपने मोहल्ले में मोहल्ला सभाएं कर, जनता से पूछते हैं कि उनके इलाके में नगर निगम के फंड कहां इस्तेमाल हों, कर्मचारी क्या काम करें तथा गरीबों के लिए बनी योजनाओं का लाभ किस किसको मिले।

मोहल्ला सभा, (सोनिया विहार, दिल्ली)

इन बैठकों के काफी सकारात्मक नतीज़े आ रहे हैं। एक तरफ तो इनके ज़रिए सीमित संसाधनों को उन कामों में लगाया जा रहा है जो जनता की प्राथमिकता में हैं, दूसरी तरफ इन बैठको का आयोजन सम्बंधित पार्षदों के बड़े पैमाने पर राजनीतिक फायदा पहुंचा रहा है। क्योंकि इस प्रक्रिया में एक पार्षद अपने प्रत्येक वोटर को महीने में कम से कम दो बार पत्रा लिखता है, एक बार तो उन्हें मोहल्ला सभा में निमंत्रित करने के लिए और दूसरी बार उन्हें बैठक के फैसलों से अवगत करवाने के लिए। ये पत्र तथा खुली बैठकें पार्षदों को जनता के निरंतर संपर्क में रखती हैं।

दोनों ही वार्डों में जनता इस पूरी प्रक्रिया की तारीफ कर रही है। दिल्ली के उपराज्यपाल ने भी समाचार पत्रों में इस प्रक्रिया के बारे में छपी खबरों से स्वत: संज्ञान लेते हुए दोनों पार्षदों को बधाई दी है। और नगय आयुक्त को लिखा है कि अन्य वार्डों में भी इस तरह की कोशिश करें।

मोहल्ला सभा की बैठक कैसे होती हैं?

  • एक नगर निगम वार्ड को 10 हिस्सों बांट दिया जाता है। प्रत्येक भाग को मोहल्ला कहा जाता है। एक वार्ड में करीब 40,000 वोटर होते हैं। इस तरह एक मोहल्ले में करीब 4000 वोटर होते हैं अर्थात करीब 1500 परिवार। एक मोहल्ले का प्रत्येक वोटर मोहल्ला सभा का सदस्य होता है। मोहल्ला सभा हर महीने एक बार बैठक करती है।
  • मोहल्ला सभा के पहले प्रत्येक घर में बैठक के दिन, स्थान तथा समय के बारे में लिखित सूचना दी जाती है। यह सूचना पार्षद की ओर से वोटर के नाम लिखी एक चिट्ठी के रूप में होती है। बैठक में नगर निगम के स्थानीय अधिकारियों को भी बुलाया जाता है।
  • बैठक में कई लोग एक साथ न बोलें इसके लिए लोगों को एक खाली पर्ची दे दी जाती है। इस पर वे अपना नाम, पता तथा उस मुद्दे के बारे में लिखकर देते हैं जिसके बारे में उन्हें बात रखनी है। इन पर्चियों के आधार पर एक एक व्यक्ति को बोलने के लिए बुलाया जाता है।
  • लोग अपनी समस्याएं रखते हैं। सभी लोग मिलकर उन पर चर्चा करते हैं, सुझाव देते हैं और जो कार्य वे अपने इलाके में चाहते हैं उसके बारे में निर्णय लेते हैं। आवश्यकता पड़ने पर कर्मचारी भी अपनी बात रखते हैं। यदि मामला कर्मचारियों की लापरवाही का होता है तो उन्हें काम के होने की समय सीमा बतानी होती है कि अमुक काम कब तक पूरा कर लिया जाएगा। जहां भी ज़रूरत होती है पार्षद अपने कोटे से वहीं का वहीं फंड भी आबंटित करते हैं।
  • पार्षद के कोटे का फंड और नगर निगम के अन्य फंड किन किन कामों पर खर्च किए जाएं इनका फैसला भी मोहल्ला सभा में किया जाता है।
  • गरीबों के लिए बनी विभिन्न सरकारी योजनाओं जैसे व्रद्धावस्था, विधवा पेंशन आदि किसको मिले और कौन सबसे गरीब है, ये निर्णय भी सीधे जनता द्वारा मोहल्ला सभा में जनता द्वारा लिए जाते हैं।
  • सभी निर्णय आम सहमति या बहुमत के आधार पर लिए जाते हैं।
  • पार्षदों, ने यह भी व्यवस्था की है कि सम्बंधित कार्य के लिए ठेकेदार को भुगतान जनता द्वारा कार्य के प्रति संतुष्टि ज़ाहिर किए जाने पर ही होगा।
  • मोहल्ला सभा बैठक का मूल सिद्धांत है कि – किसी इलाके में क्या काम होगा यह उस इलाके के लोग तय करेंगे और उनके प्रतिनिधि (पार्षद), अपने अधिकार क्षेत्र, कानून और संसाधनों की उपलब्ध्ता के ध्यान में रखते हुए, केवल उनकी इच्छा का पालन करेंगे।
  • बैठक के बाद, मोहल्ला सभा द्वारा लिए गए फैसलों की जानकारी लिखित रूप से मोहल्ले के प्रत्येक घर में भेज दी जाती है।
  • हर मोहल्ले में ये बैठकें, दो महीने में कम कम एक बार होंती हैं तथा इनमें पिछली बैठकों में लिए गए फैसलों पर की गई कार्रवाई पर भी चर्चा होती है।

मोहल्ला सभा, (त्रिलोकपुरी, दिल्ली)

अभी तक का अनुभव

  • लोगों की मांगे बहुत छोटी छोटी और कई बार तो बेहद मामूली होती हैं.। सरकार जनता के करोड़ों रुपए मनमाए तरीके से खर्च कर देती है इसीलिए जनता भी असंतुष्ट रहती है। लेकिन जब लोग फैसले लेते हैं तो उनकी सभी मांगें अपेक्षाकृत कम फंड से भी पूरी की जा सकती हैं। उदाहरण के लिए त्रिलोकपुरी इलाके में पहली मोहल्ला सभा में लोगों की सभी मांगें महज़ 14 लाख के बजट की थीं। लोगों की मांग उपलब्ध् फंड से अधिक होने पर जनता के सामने स्थिति स्पष्ट की जाती है तब लोग आपस में चर्चा कर तय करते हैं कि उपलब्ध् बजट को बेहतरीन तरीके से कैसे इस्तेमाल किया जा सकता है। आवश्यकता पड़ने पर प्राथमिकता तय करने के लिए मोहल्ला सभा में वोटिंग भी कराई जाती है।
  • अधिकतर पार्षदों की शिकायत रहती है कि स्थानीय अधिकारी उनकी बात नहीं सुनते। इससे पार्षदों की छवि खराब होती है लेकिन जिन वार्डों में मोहल्ला सभाएं होनी शुरू हुई हैं वहां स्थितियां बदली हैं। देखने में आया है कि कर्मचारियों ने अब अपना काम अधिक मुस्तैदी से करना शुरू कर दिया है। उदाहरण के लिए एक बैठक में एक व्यक्ति ने बताया कि तीन साल से वह अपने मोहल्ले की एक नाली में सफाई न होने की शिकायत कर रहा है। पार्षद ने भी बताया कि वह हर बार सफाई नायक को कह देते हैं। बैठक में मौजूद सफाई नायक ने मोहल्ला सभा में सबके सामने कहा कि वह तीन दिन में सफाई करा देगा। लोगों ने सफाई नायक से पूछा कि अगर तीन दिन में सफाई नहीं हुई तो उसके खिलाफ क्या कार्रवाई की जानी चाहिए? जवाब में खुद सफाई नायक ने कहा जनता जो भी सजा देगी वह उसे भुगतने के लिए तैयार है। नतीज़ा यह निकला कि तीन दिन में ही नाली की सफाई करा दी गई।
  • यह देखना काफी दिलचस्प है कि मोहल्ला सभाओं में किस तरह लोग व्रद्धावस्था, विधवा, विकलांग अवस्था पेंशन आदि के बारे में निर्णय लेते हैं। ये सभी योजनाएं सरकार गरीब लोगों की सामाजिक सुरक्षा के लिए बनाती है। अभी तक इन योजनाओं का लाभ पार्षद के नज़दीकी, उनके रिश्तेदार या पार्टी से जुड़े लोगों को ही मिल पाता था। अब इन योजनाओं के लाभार्थियों के नाम खुली बैठक में चर्चा के बाद तय किए जाते हैं। सोनिया विहार वार्ड के तहत आने वाले बदरपुर खादर गांव के लोग बहुत गरीब हैं। जब इस गांव में मोहल्ला सभा की बैठक हुई तो करीब 100 लोग इसमें शामिल हुए। जब बैठक के दौरान व्रद्धावस्था, विधवा, विकलांग पेंशन आदि की स्कीमों के लाभार्थी चयनित करने की बारी आई तो लोगों ने आपस में सलाह मशविरा करके आठ महिलाओं के नाम सुझाए, जो गरीब थीं। पार्षद ने कहा कि अभी 42 और लोगों को पेंशन दी जा सकती है, कुछ और नाम बताइए तो लोगों ने एकमत से कहा कि उनके गांव में यही आठ सबसे गरीब हैं जिन्हें इस योजना का लाभ मिलना चाहिए। उन लोगों की इमानदारी और न्यायप्रियता का यह दृश्य देखकर कई लोगों की आंखों में आंसू आ गए। यहां यह भी समझ में आया कि गरीबों के लिए बनी योजनाओं का चयन अगर इस तरह सार्वजनिक बैठकों में किया जाएगा तो कोई भी ऐसा व्यक्ति जो गरीब नहीं है खुद को गरीब नहीं कहेगा। यह उसके सम्मान के खिलाफ होगा।
  • इन मोहल्ला सभाओं के चलते राजनेता लगातार काम कर रहे हैं। पहले उन्हें केवल पांच साल में एक बार जनता के सामने जवाब देना होता था। अब तो उन्हें हर महीने जनता के सामने जाना होता है।
  • हमारे देश में नौकरशाही से सीधे सवाल करने के लिए कोई मंच नहीं है। उनका कामकाज एकदम मनमर्जी और गैरज़िम्मेदाराना तरीके से चलता है। मोहल्ला सभा एक ऐसे मंच के रूप में सामने आ रही हैं जहां लोग उनसे सीधे सवाल कर सकें। वास्तव में, मोहल्ला सभा बैठओं ने लोगों और उनके जनप्रतिनिधियों को एक साथ ला दिया है। अब बारी गैर निर्वाचित पदाधिकारियों यानि सरकारी कर्मचारियों की है। उनके पास भी अब जनता के साथ आने के अलावा कोई चारा नहीं बचा है। अगर वे ऐसा नहीं करते हैं तो अकेले पड़ जाएंगे।

आप भी जुड़िये इस अभियान से

स्वराज अभियान से जुड़ने का मतलब क्या है?

  • स्वराज अभियान से जुड़ने का मतलब है कि स्वराज की अवधारणा को समझना और फिर अपने मोहल्ले या गांव में इस तरह की व्यवस्था की स्थापना के काम में जुटना।
  • इसके लिए किसी शहरी मोहल्ले या गांव के 15-20 युवा शुरुआत कर सकते हैं। ये युवा पहले तो खुद इस अवधरणा कि ठीक से समझें और तब अपने मोहल्ले में इस बारे में अन्य लोगों से बातचीत करें ताकि मोहल्ले या गांव के अधिक से अधिक लोग इस संबन्ध् में जान सकें।
  • ध्यान रहे कि इस क्रम में राजनीति दो स्पष्ट ध्रवों में बंटेगी। एक वो जो स्वराज के पक्ष में हैं जो लोगों के तंत्र में विश्वास रखते हैं, वे चाहेंगे कि सत्ता सीधे जनता के हाथ में हो। दूसरे वे जो यह मानते हैं कि लोग फैसले नहीं ले सकते, फैसला लेने के लिए तो कोई प्रतिनिधि चाहिए ही।
  • जब अपने गांव और मोहल्ले में बात करना शुरू करेंगे तो पहली श्रेणी के लोगों की संख्या धीरे-धीरे बढ़ेगी। संख्या बढ़ेगी तो गांव के प्रधान या मोहल्ले के निगम पार्षद को उससे संबिन्ध्त सारे फैसले हर महीने मोहल्ला सभाओं में करने के लिए तैयार किया जा सकेगा।
  • अभियान का मकसद है कि अधिक से अधिक शहरों और गांवों में सारे फैसले मोहल्ला सभाओं और ग्राम सभाओं के माध्यम से हों।
  • जहां-जहां यह संभव हो सके और उससे गांव के माहौल व विकास में आए बदलाव को बाकी जगह बताया जाए ताकि यही प्रक्रिया वहां भी शुरू हो सके।

हमें ये ध्यान रखना होगा कि सकारात्मक परिणाम आने में वक्त लगेगा जैसा कि ब्राजील का अनुभव हमें बताता है, ऐसा होने में कई-कई साल का भी समय लग सकता है। शुरुआत में लोग गलती भी करेंगे। लेकिन फिर वो अपनी इसी गलती से सीखेंगे भी। और इसी तरह एक लोकतंत्र परिपक्व और विकसित भी होता है। लेकिन एक बार लोगों को अपनी अभिव्यक्ति और इस व्यवस्था का महत्व समझ में आ जाए तो फिर इनका भला तो होगा ही, उस राजनीतिक दलों को भी इसमें फायदा नज़र आएगा और वे इस व्यवस्था को कानूनी जामा पहनाने में भी अपना भला देखेंगे।

इस अभियान के संबन्ध् में किसी भी प्रकार की जानकारी के लिए संपर्क कर सकते हैं -

ईमेल: swaraj.abhiyan@gmail.com

फोन: 09718255455

Sunday, December 13, 2009

ग्राम पंचायत कानून में सुधार

कहने को गांवों में पंचायती राज लागू है। सरकार पंचायती राज के आंकड़े़ गिनाते-गिनाते नहीं थकती। लेकिन सरकार में ही बैठे लोग अलग से यह कहने से नहीं चूकते कि देखिए! पंचायती राज किस तरह भ्रष्टाचार का अड्डा बन गया है। उनके लिए यह लोकनियंत्रित प्रशासन को असपफल बनाने का माध्यम बन गया है। वस्तुत: अभी जो प्रधान या मुखिया बनाए गए हैं उनकी स्थिति मिनी एम.एल.ए. जैसी ही है। जिस तरह एम.एल.ए. पर जनता का नियंत्रण पांच साल में एक बार वोट डालने तक सीमित है उसी तरह गांव में आम जनता की प्रधान के ऊपर कुछ नहीं चलती। कानून के मुताबिक गांव सभा की बैठकें होनी चाहिए लेकिन प्रधान को उसी कानून में इतनी छूट है कि वह अपने कुछ भ्रष्ट साथियों के साथ मिलकर सब खानापूर्ति कर देते हैं।

दूसरी तरफ अगर कोई प्रधान ईमानदारी से काम करना चाहे तो उसे इलाके के बीडीओ, एसडीओ, सीडीओ काम नहीं करने देते। गांव के फंड पर इन लोगों का शिकंजा इतना खतरनाक है कि वे चाहें तो गांव की ओर एक पैसा न जाने दें। प्रधान अगर इनके साथ मिलकर बेईमानी करे तो सब कुछ आसान है और अगर ईमानदारी से काम कराना चाहे तो ये उसकी फाइल आगे न बढ़ाएं। इसीलिए ईमानदार से ईमानदार प्रधान भी अपने गांव के फंड को इन अफसरों के चंगुल से नहीं छुटा सकता।

ऐसा नहीं है कि देश में ईमानदार लोग प्रधान नहीं चुने जाते हैं। लेकिन देश भर के अनुभवों से यह देखा गया है कि सिर्फ वही ईमानदार प्रधान इन अफसरों की मनमानी पर अंकुश लगा पाए हैं जो वास्तव में अपने सारे फैसले ग्राम सभा में लेते हैं। हालांकि ऐसे प्रधानों की संख्या बेहद सीमित है, लेकिन इनके उदाहरण यह समझने के लिए पर्याप्त हैं कि पंचायती राज को सफल बनाने के लिए उसमें ग्राम सभाओं को किस तरह की कानूनी ताकत चाहिए।
लोकराज आंदोलन (स्वराज अभियान) द्वारा समाज, सरकार और कानून के जानकारों के साथ गहन विमर्श के बाद पंचायती राज कानूनों में आवश्यक संशोधन के लिए यह दस्तावेज़ तैयार किया है। इसमें ग्राम सभाओं को मजबूत बनाने के लिए यथासंभव मजबूत कानून की अवधारणा स्पष्ट की गई है-

1- वे सभी कार्य जो गांव में किए जाने हैं और जिसका अंतरसंबन्ध् किसी अन्य ग्राम से नहीं है, गांव के स्तर पर ही किए जाएं। (ग्राम पंचायत) वे कार्य जो गांव के स्तर पर नहीं किए जा सकते और जिनका संबन्ध् ऐसे काम जो इस स्तर पर नहीं हो सकता और जिनका संबंध् अन्य गांवों से भी है, उन्हें ब्लॉक स्तर पर किया जाए। (ब्लॉक पंचायत) और जो काम ब्लाक स्तर पर नहीं किए जा सकते और जिनका संबन्ध् एक से अधिक ब्लाक से हो, उन्हें जिला स्तर पर किया जाए (ज़िला पंचायत)। और जो कार्य ज़िला स्तर पर नहीं हो सकते उन्हें राज्य स्तर पर किया जाए (राज्य सरकार) शासन के हरेक स्तर के लिए ऐसे कार्य की एक सूची बना ली जाए। साथ ही किसी कार्य से सम्बंधित सभी कर्मचारी और धनराशि सम्बंधित स्तर की शासन इकाई के अधीन होगी।

2- इसी तरह, सड़क, गलियां, जन शौचालय इत्यादि जो पूरी तरह किसी एक गांव की सीमा के भीतर हों, उसकी देख-रेख की जिम्मेदारी ग्राम स्तर पर दी जाए। ऐसी संपत्ति जिसका संबंध् एक से ज्यादा गांव से हो, उसकी जिम्मेवारी ब्लॉक को दी जाए। और अगर ऐसी संपत्ति एक से ज्यादा ब्लॉक से सम्बंधित हो तो उसकी ज़िम्मेदारी ज़िला स्तर पर दी जाए तथा एक से अधिक ज़िलों से सम्बंधित होने की स्थिति में उसके रखरखाव आदि की ज़िम्मेदारी राज्य सरकार निभाए। शासन के हरेक स्तर के लिए ऐसी तमाम तरह की संपत्तियों की एक सूची बना ली जाए और इससे सम्बंधित सभी कर्मचारियों, संपत्ति और फंड को सम्बंधित स्तर को सौंप दिया जाए।

3- सभी संस्थाएं जैसे स्कूल, अस्पताल, दवाखाना इत्यादि जो किसी एक गांव के निवासियों के लिए है उसे केवल उस गांव के द्वारा ही चलाया जाए। एक से ज्यादा गांव से सम्बंधित संस्थाओं को ब्लॉक चलाए और एक से ज्यादा ब्लॉक से सम्बंधित संस्थाओं को जिला और एक से ज्यादा जिलों से सम्बंधित संस्थाओं को राज्य द्वारा चलाया जाए। शासन के हरेक स्तर के लिए ऐसी संस्थाओं की एक सूची बना ली जाए और इससे सम्बंधित सभी कर्मचारियों, संपत्ति और फंड को सम्बंधित स्तर को सौंप दिया जाए।

4- राज्य के राजस्व का कम से 50 प्रतिशत हिस्सा, एकमुश्त राशि के रूप में तथा किसी योजना विशेष से संबद्ध किए बगैर ही, सीधे ग्राम पंचायतों को दिया जाए। गांव, ब्लॉक और जिला स्तर की व्यवस्था से सम्बंधित राज्य सरकार की योजनाएं खत्म कर दी जाएं तथा पंचायतों के लिए एकमुश्त राशि प्रदान की जाए।

5- ग्राम स्तर पर सभी निर्णय ग्राम सभा द्वारा ही लिए जाएंगे। ग्राम सभा द्वारा लिए गए फैसलों के क्रियान्वयन की ज़िम्मेदारी ग्राम सचिव ही होगी। ग्राम सचिव की नियुक्ति, ग्राम सभा द्वारा की जाएगी। ग्राम सभा के निर्णय अंतिम माने जाएंगे, यदि उस निर्णय में कोई तकनीकी त्रुटि न हो या उससे किसी कानून का उल्लंघन न होता हो। यदि ग्राम सभा के किसी निर्णय को ले कर कोई कानूनी विवाद होता है तो इसका निपटारा लोकपाल
(ओंबड्समैन) द्वारा किया जाएगा।

6- ग्राम सभा की बैठक, महीने में कम से कम एक बार अवश्य होगी। बैठक का एजेंडा सचिव द्वारा तय किया जाएगा और बैठक से एक सप्ताह पहले ग्राम सभा के सभी लोगों के बीच इसे वितरित किया जाएगा। ग्राम सभा के सदस्य यदि किसी मुद्दे को एजेंडे में डलवाना चाहें तो बैठक से दस दिन पहले लिखित या मौखिक तौर पर सचिव को दे सकता है। प्रत्येक बैठक की शुरुआत में आपसी सहमति से यह तय किया जाएगा कि मुद्दों पर विचार विमर्श एवं चर्चा का क्रम क्या होगा।

7- सरकारी कर्मचारियों पर नियंत्रण: इस व्यवस्था में दो तरह के कर्मचारी होंगे:

(क) वे कर्मचारी जिनकी नियुक्ति अलग-अलग स्तर के शासन, यथा ग्राम पंचायत, ब्लॉक पंचायत, ज़िला पंचायत आदि द्वारा ही सीधे की गई हो।

(ख) वे कर्मचारी जिनकी नियुक्ति राज्य सरकार द्वारा की गई थी (लेकिन नई व्यवस्था के तहत) उन्हें ग्राम, ब्लॉक या ज़िला शासन व्यवस्था के अधीन स्थानांतरित कर दिया गया है। गांव, ब्लॉक या जिला शासन व्यवस्था के अधीन ऐसे कर्मचारी के सेवानिवृत्त होने की स्थिति में उसकी जगह नई नियुक्ति सम्बंधित शासन व्यवस्था के द्वारा की जाएगी।

ग्राम सभा द्वारा निम्नलिखित रूप में सरकारी कर्मचारियों पर नियंत्रण किया जाएगा-

ग्राम सभा, गांव, ब्लॉक या जिला स्तर के किसी भी कर्मचारी के कामकाज से असंतुष्ट होने पर, उसे सम्मान जारी कर सकती है तथा निम्न कदम उठा सकती है-

(क) कर्मचारी को सम्मन जारी कर ग्राम सभा की बैठक में बुलाना तथा उससे स्पष्टीकरण मांगना।

(ख) उपरोक्त स्पष्टीकरण से असंतुष्ट होने की स्थिति में ग्राम सचिव के माध्यम से सम्बंधित कर्मचारी को निर्देश लिखित चेतावनी जारी करना। यह चेतावनी उस कर्मचारी की वार्षिक गोपनीय रिपोर्ट (एसीआर) में शामिल की जाएगी।

(ग) किसी कर्मचारी का कामकाज संतुष्टिजनक न होने की स्थिति में, उस कर्मचारी के कार्य व्यवहार में सुधार आने की स्थिति तक, ग्राम सभा उस कर्मचारी का वेतन रोकने का फैसला ले सकती है। यदि कर्मचारी का वेतन ब्लॉक या ज़िला स्तर की पंचायत द्वारा दिया जाता है तो, ग्राम सभा सम्बंधित संस्था को इसका निर्देश दे सकती है।

(घ) यदि कर्मचारी का व्यवहार खराब रहता है तो ग्राम सभा, उसे समुचित सुनवाई का अवसर देते हुए, उस पर आर्थिक जुर्माना लगाने का निर्णय ले सकती है।

(ड़) यदि कर्मचारी ग्राम सभा के अधीन है तो ग्राम सभा ऐसे कर्मचारी को नौकरी से निकाल सकती है।

8- यदि ग्राम सभा के पास किसी प्रकार की अनियमितता की जानकारी पहुंचती है या किसी अन्य कारण से, ग्राम सभा चाहे तो किसी मामले में जांच करा सकती है। ग्राम सभा चाहे तो इस जांच के लिए अपनी कोई समिति बना सकती है अथवा, किसी सक्षम अधिकारी को जांच के लिए कह सकती है जो एक निश्चित समय सीमा के भीतर जांच रिपोर्ट ग्राम सभा को सौंपेगी। ग्राम सभा इस रिपोर्ट को पूर्णत: अथवा आंशिक रूप से स्वीकार या खारिज कर सकती है या उस पर यथोचित कदम उठा सकती है।

9- राज्य सरकार ग्राम सभा को कार्यालय चलाने के लिए अलग से पैसा उपलब्ध् कराएगी।

10- ग्राम सभा के कार्य:-

(क) वार्षिक योजना:- राज्य सरकार के बजट में प्रत्येक ग्राम ब्लॉक और जिला स्तर पंचायत को, राज्य वित्त आयोग द्वारा निर्धारित फॉर्मूला के अनुसार, धनराशि उपलब्ध् कराई जाएगी। ग्राम सभा अपने गांव के लिए वार्षिक योजना बनाएगी। ब्लॉक और जिला स्तर, उस क्षेत्र की ग्राम सभाओं के सुझावों के अनुरुप योजनाएं बनाई जाएंगी। योजनाएं बनाने में प्राथमिकता तय करने का कार्य आपसी सहमति के आधार और सहमति नहीं बनने के हालत में मतदान के जरिए किया जाएगा।

(ख) ग्राम में होने वाले किसी भी काम के लिए भुगतान ग्राम सभा की संतुष्टि बिना नहीं किया जाएगा। यदि ग्राम सभा किसी परियोजना या कार्य से असंतुष्ट हो तो वह भुगतान रोक सकती है, साथ ही खराब कार्य किए जाने का कारण जानने के लिए जांच करा सकती है और इसके लिए जवाबदेही तय कर सकती है।

(ग) ग्राम सभा ये सुनिश्चित करेगी कि गांव में कोई भूखा न रहे, हरेक बच्चा स्कूल जाए और सभी को आवश्यक स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध् हों। इन कार्यों से सम्बंधित योजनाओं और खर्च को ग्राम ब्लॉक और ज़िला स्तर के बजट में प्राथमिकता दी जाएगी। इन कार्यों के लिए ग्राम सभा, केवल राज्य सरकार के बजट पर ही निर्भर नहीं रहेगी। एक समाज के तौर पर यह गांव की ज़िम्मेदारी होगी कि कोई भूखे पेट न सोए, सबके पास एक घर हो, हरेक बच्चा स्कूल जाता हो। आवश्यकता पड़ने पर ग्राम सभा इसके लिए अनुदान भी इकट्ठा कर सकती है।

(घ) सभी को रोज़गार सुनिश्चित करने के लिए ग्राम सभा सभी कदम उठाएगी। पंचायत कार्यों के लिए भुगतान की जाने वाली मजदूरी भी ग्राम सभा ही तय करेगी। हालांकि यह राज्य सरकार द्वारा तय की गई न्यूनतम दैनिक मजदूरी से कम नहीं होगी। ग्राम सभा लोगों को कोई छोटा धंधा शुरु करने के लिए लोन भी दे सकती है या सहकारिता के आधार पर कोई छोटा उद्योग शुरु करने का फैसला ले सकती है या रोजगार के अवसर बढ़ाने के लिए अन्य कोई कदम उठा सकती है।

(च) ऐसे कर जो ग्राम स्तर पर आसानी से वसूले जा सकते हैं उन्हें ग्राम स्तर पर ही वसूला जाएगा, इसी प्रकार ब्लॉक और ज़िला स्तर पर आसानी से इकट्ठा किए जा सकने वाले करों की वसूली भी ब्लॉक एवं ज़िला पंचायतों द्वारा की जाएगी। कुछ कर राज्य सरकार लगाएगी लेकिन उसकी वसूली पंचायत, ब्लॉक या जिला स्तर पर की जाएगी। वहीं, कुछ कर राज्य सरकार द्वारा ही लगाए एवं वसूले जाएंगे। कुछ कर ग्राम, ब्लॉक या जिला स्तर की पंचायतों द्वारा भी लगाए और वसूले जा सकते हैं। ऐसे करों की एक सूची बना कर राज्य सरकार द्वारा अधिसूचित की जाएगी।

(छ) कृषि उत्पाद मार्केटिंग व्यवस्था और इससे प्राप्त राजस्व पर सीधे ग्राम सभा का ही नियंत्रण होगा।

(ज) ग्राम सभा केवल निर्णय लेगी। उसके क्रियान्वयन या निगरानी सीधे उससे लाभान्वित समूह करेगा। ऐसे लोगों की सभाएं लाभान्वितों की सभा कहलाएंगी और किसी भी मामले की लाभान्वित सभा के निर्णय भी ग्राम सभा की ही तरह मान्यता प्राप्त एवं अधिकृत होंगे।

(झ) राशन दुकान और केरोसीन डिपो का लाइसेंस निरस्त करने और नया लाइसेंस जारी करने का अधिकार भी उस मामले की लाभान्वित सभा के पास रहेगा।

(ट) जरूरत के हिसाब से ग्राम सभा, ब्लॉक या जिला पंचायतें अपने-अपने स्तर पर अतिरिक्त कर्मचारियों जैसे शिक्षक इत्यादि की नियुक्ति कर सकती है एवं नियुक्ति के लिए समुचित नियम शर्तों का निर्धारण भी कर सकेंगी।

(ठ) ग्राम सभा की प्रत्येक बैठक में आखिरी एक घंटे का समय लोगों की व्यक्तिगत शिकायतों को सुनने, उन पर चर्चा करने और उनके समाधान के प्रयास करने के लिए निर्धारित रहेगा।

(ड) ग्राम सभा की 90 प्रतिशत महिला सदस्यों की सहमति के बिना शराब दुकान का लाइसेंस नहीं दिया जाएगा। ग्राम सभा क्षेत्र में चल रही किसी शराब दुकान का लाइसेंस उस ग्राम सभा की महिला सदस्यों के साधारण बहुमत से भी निरस्त किया जा सकेगा।

(ढ़) ग्राम सभा के अधीन भूमि क्षेत्र में किसी औद्योगिक या खनन इकाई लगाने से पहले सम्बंधित ग्राम सभा की अनुमति लेना ज़रूरी होगा। अनुमति देते हुए ग्राम सभा शर्तें भी लगा सकती है। किसी भी शर्त के उल्लंघन होने पर ग्राम सभा को अनुमति निरस्त करने का अधिकार होगा।

(त) ग्राम सभा की सहमति के बिना राज्य सरकार किसी भी जमीन का अधिग्रहण नहीं कर सकेगी। भू-अधिग्रहण कानून के संदर्भ में ग्राम सभा ही (राज्य) के अधिकार प्राप्त होंगे। ग्राम सभा ही भू-अधिग्रहण के लिए नियम और शर्त का निर्धारण करेगी।

(थ) भू-उपयोग में बदलाव भी ग्राम सभा ही तय करेगी।

(द) सभी भूमि हस्तांतरण और सम्बंधित रिकॉर्ड की देख-रेख ग्राम सभा ही करेगी।

(ध्) ग्राम सभा का अपने क्षेत्र के प्राकृतिक संसाधनों पर पूरा सामुदायिक नियंत्रण होगा जिस प्रकार पैसा के तहत आदिवासी क्षेत्रों में ग्राम सभाओं के पास हैं। पंचायत क्षेत्र में आने वाले सभी प्राकृतिक संसाधन ग्राम सभा के अधीन होंगे।

(न) यदि किसी राज्य में 5 प्रतिशत या उससे अधिक ग्राम सभाएं किसी कानून का प्रस्ताव देती हैं तो राज्य सरकार उस कानून की प्रति सभी ग्राम सभाओं के पास उनकी सहमति के लिए भेजेगी। यदि 50 प्रतिशत से ज्यादा ग्राम सभा इस प्रस्ताव को पारित कर देती है तो राज्य सरकार को वह कानून पास करना होगा। इसी प्रकार ग्राम सभाओं के पास किसी कानून को पूर्णत: या आंशिक तौर पर निष्प्रभावी करने का अधिकार भी होगा।

(प) ग्राम सभा और पंचायत के सदस्यों को, किसी भी सरकारी कर्मचारी से, अपने गांव से प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से सम्बंधित, सूचना प्राप्त करने का अधिकार होगा। ग्राम सभा इस प्रकार सूचना न उपलब्ध् करने वाले कर्मचारी पर 25000 रुपये तक का जुर्माना लगा सकती है।

11- ब्लॉक और जिला स्तर पंचायत के लिए अप्रत्यक्ष चुनाव होगा। किसी ब्लॉक के सभी सरपंच ब्लॉक पंचायत के सदस्य होंगे और अपने में से एक का चुनाव ब्लॉक अध्यक्ष पद के लिए कर सकेंगे। सभी ब्लॉक अध्यक्ष जिला पंचायत के सदस्य होंगे और अपने में से किसी एक को जिला अधीक्षक के तौर पर चुनेंगे। सरपंच का कार्य ब्लॉक और गांव के बीच सेतु की भूमिका निभाना होगा। वह ग्राम सभा के निर्णय को ब्लॉक तक और ब्लॉक के निर्णय को ग्राम सभा तक पहुंचाएगा। सरपंच के माध्यम से ग्राम सभा ब्लॉक की गतिविधियों पर नियंत्रण रखेगी। इसी तरह ब्लॉक अध्यक्ष, ब्लॉक और जिले के बीच सेतु का काम करेगा यानि ब्लॉक के निर्णय को जिला पंचायत तक और जिला पंचायत के निर्णय को ब्लॉक पंचायत तक पहुंचाएगा। सरपंच, ब्लॉक और जिला अध्यक्ष, क्रमश: ग्राम, ब्लॉक और जिला सभाओं की बैठकों की भी अध्यक्षता करेंगे।

12- कोई भी ग्राम सभा ब्लॉक या जिला पंचायत को किसी मुद्दे या परियोजना पर विचार के लिए कह सकती है। ब्लॉक या जिला पंचायत स्वयं भी अथवा राज्य और केंद्र सरकार के सुझावों पर कोई परियोजना या मुद्दा उठा सकती है। किसी भी मुद्दे या परियोजना को समस्त सम्बंधित विवरण के साथ तथा उसके बारे में ब्लॉक या जिला पंचायत की राय के साथ, उस क्षेत्र की सभी ग्राम सभाओं में उनकी राय जानने ले लिए वितरित किया जाएगा। सामान्यत: किसी मुद्दे पर कोई निर्णय लागू किए जाने से पहले, उससे प्रभावित होने वाली ग्राम सभाओं की सहमति आवश्यक होगी।

13- वापस बुलाने का अधिकार- यदि ग्राम किसी सभा के एक तिहाई सदस्य, लिखित रूप से, राज्य निर्वाचन आयोग को सरपंच अपने गांव के सरपंच के प्रति अविश्वास का नोटिस देते हैं तो आयोग उस नोटिस की सत्यता की जांच कराएगा तथा सत्य पाए जाने पर, नोटिस प्राप्त होने के एक महीने के अंदर, गुप्त मतदान कराएगा कि क्या ग्राम सभा के लोग सरपंच को हटाना चाहते हैं।

14- रिकॉर्डस में पारदर्शिता- गांव, ब्लॉक या जिला पंचायत के सभी आंकड़े सार्वजनिक होंगे। प्रत्येक सप्ताह दो निर्धारित दिवसों पर, निश्चित समय पर कोई भी व्यक्ति बिना आवेदन दिए इन रिकॉर्डस को देख सकता है। यदि कोई रिकॉर्ड की कॉपी चाहता है तो वह निरीक्षण के बाद इसके लिए एक आवेदन दे सकता है। आवेदन देने के एक सप्ताह के भीतर साधारण फोटोकॉपी शुल्क ले कर वह रिकार्ड उपलब्ध् करा दिया जाएगा।

15- जिला स्तर पर लोकपाल का गठन -हरेक जिले में एक लोकपाल होगा जो पंचायती राज कानून से सम्बंधित विवाद और समस्याओं का निपटारा करेगा, साथ ही पंचायती राज कानून के प्रावधानों का लागू होना सुनिश्चित कराएगा। इसके पास पर्याप्त अधिकार होंगे ताकि अपने आदेशों को लागू करवा सके। साथ ही कर्मचारियों के खिलाफ सम्मन जारी कर सके। ओंबड्समैन का चुनाव पूर्णत: पारदर्शिता और सहभागिता की प्रक्रिया से होगा। इसके लिए आवेदन मंगाए जाएंगे। सभी आवेदनों पर जनता की राय जानने के लिए इसे वेबसाइट पर डाल दिया जाएगा। इसके बाद जन सुनवाई में सभी आवेदक जनता के सवालों का जवाब देंगे। राज्य के प्रख्यात लोगों (राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता) की एक कमेटी बनाई जाएगी जो सभी आवेदनों की जांच कर राज्यपाल के पास किसी एक नाम की सिफारिश करेंगे।

शहरों के लिए कानून

सरकार को जनता के साथ जोड़ने के मकसद से लाए गए 73 वें और 74 वें संविधन संशोधन का अभी फलीभूत होना बाकी है। गांवों में तो पंचायतें भी बनी हैं और ग्राम सभा यानि गांव के हर आदमी सभा को कुछ अधिकार भी मिले हैं। हालांकि अभी ग्राम सभाओं को सशक्त किए जाने के लिए काफी कुछ किया जाना बाकी है लेकिन यहां चर्चा शहरों की जहां आम आदमी के पास ग्राम सभा की तर्ज पर कोई मंच ही नहीं है जहां वह अपनी बात कह सके कि उसे क्या चाहिए। यहां के लोगों के लिए नगर सभा या मोहल्ला सभा जैसी कोई व्यवस्था ही नहीं है।

हाल ही में शहरी क्षेत्रों के लिए केंद्र सरकार ने नगर राज विधेयक का प्रारुप तैयार किया है जिसमें पहली बार मोहल्ले के लोगों की आम सभा की बात कही गई है। इसमें नगर के वार्डों को कई भागों में बांट देने की बात है, जिसे क्षेत्र (एरिया) के नाम से जाना जाएगा। हरेक एरिया में 3000 मतदाता होंगे। इन मतदाताओं की एक सभा होगी जिसे क्षेत्र सभा (एरिया सभा) कहा जाएगा और इस सभा को कुछ अधिकार भी दिए जाएंगे।

केंद्र सरकार ने इस नगर राज बिल को जवाहर लाल नेहरु राष्ट्रीय शहरी नवीनीकरण मिशन (जे.एन.यू.आर.एम.) के साथ जोड़ा है। प्रस्ताव के मुताबिक जे.एन.यू.आर.एम, का पैसा उन्हें राज्यों को मिलेगा जो इस नगर राज बिल को अपने यहां लागू करेंगे। राज्य सरकार चाहे तो इसमें थोड़ा बहुत संशोधन कर सकती है।

लेकिन यह विधेयक अपने-आप में अपूर्ण है। नगरराज विधेयक में क्षेत्र सभा को कोई विशेष अधिकार दिए जाने का उल्लेख नहीं है। जो अधिकार दिए गए हैं वो शहरी प्रशासन में महज लोगों की भागीदारी तक ही सीमित है। स्थानीय सरकारी कर्मचारियों पर नियंत्रण रख सकने लायक कोई अधिकार क्षेत्र सभा के पास नहीं होगा। सिर्फ दिखावे के लिए मिले अधिकारों से लोगों की रुचि क्षेत्र सभा की बैठक में कम हो जाएगी। अगर ऐसा होता है तो सरकार और राजनीतिक पार्टियों को शासन और स्थानीय लोकतंत्र में नागरिक सहभागिता के विचारों की आलोचना करने का अच्छा बहाना मिल जाएगा।

दूसरी तरफ लोकराज आंदोलन (स्वराज अभियान) ने समाज के कुछ प्रतिष्टित लोगों और कार्यकर्ताओं जैसे सुप्रीम कोर्ट के अधिवक्ता प्रशांत भूषण, सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना हजारे, महाराष्ट्र सूचना आयोग के सूचना आयुक्त विजय कुवलेकर, मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्य सचिव एससी वेहर, अनुसूचित जाती और जनजाति आयोग के पूर्व आयुक्त बीडी शर्मा इत्यादि से सलाह मशविरा करने के बाद आदर्श नगर राज विधेयक के लिए कुछ सुझाव तैयार किए हैं किसी भी इलाके में वहां के लोगों को व्यवस्था से ऊपर रखने वाले इस बिल में कहा जा रहा है कि स्थानीय स्कूल, दवाखाना, राशन दुकान, सड़क, स्ट्रीट लाइट, इत्यादि से जुड़े काम और उस पर नियंत्रण का अधिकार लोगों के पास होना चाहिए। इसी तरह उपरोक्त कार्य से सम्बंधित अधिकारियों पर क्षेत्र सभा (मोहल्ला सभा) का नियंत्रण होना चाहिए।

लोकराज अभियान द्वारा तैयार नगर राज बिल की कुछ खास-खास बातें

मोहल्ला सभा

  • सभी निगम वार्डों को लगभग तीन तीन हज़ार की आबादी वाले मोहल्लों में बांटा जाय। मोहल्ले के सभी लोगों की आम सभा ही मोहल्ला सभा कहलाएगी।
  • प्रत्येक मोहल्ला सभा का एक प्रतिनिधि होगा जिसका चुनाव राज्य निर्वाचन आयोग द्वारा कराया जाएगा।
  • एक वार्ड की सभी मोहल्ला सभाओं के प्रतिनिधियों को मिलाकर वार्ड समिति बनेगी। उस इलाके का वार्ड कांउसिलर इस समिति का अध्यक्ष होगा।
  • मोहल्ला सभा अपने मोहल्ले के सभी मामलों को देखेगी। एक मोहल्ले से बाहर के मामलों को वार्ड समिति, उस वार्ड की सभी मोहल्ला सभाओं के सलाह मशविरे के आधार पर देखेगी।
  • मोहल्ला सभा के प्रतिनिधि अपनी-अपनी मोहल्ला सभाओं की बैठक की अध्यक्षता करेंगे तथा मोहल्ले की जनता और वार्ड समिति के बीच मध्यस्थ का काम करेंगे।
  • मोहल्ला सभा के सभी फैसले खुली मासिक बैठकों में लिए जाएंगे।

सरकारी खर्च पर जनता का नियंत्रण

  • वार्ड समितियों के आय के स्वतंत्र स्रोत होंगे, वार्ड की मोहल्ला सभाओं से सलाह मशविरा कर, वार्ड समिति अपने क्षेत्र में कुछ मामलों में टैक्स लगाने व उगाहने के लिए अधिकृत होगी।
  • वार्ड समितियों को नगर निगम, राज्य व केंद्र सरकारों से अनटाइड बजट राशि मिलेगी।
  • इस पैसे से क्या काम होगा और कहां खर्च होगा इसका निर्णय मोहल्ला सभा करेंगी।
  • काम करने वाली एजेंसी को पैसा तभी दिया जाएगा जब मोहल्ला सभा की ओर से काम पूरा और संतुष्टि पूर्वक होने का सर्टिफिकेट जारी कर दिया जाएगा।

सरकारी कर्मचारियों पर नियंत्रण

  • मोहल्ला सभा में सभी लोग मिलकर फैसले लेंगे। मोहल्ला सभा प्रतिनिधि तथा स्थानीय सरकारी कर्मचारी केवल उन पर अमल करेंगे।
  • यदि मोहल्ला सभा प्रतिनिधि या वार्ड कांउसिलर, मोहल्ला सभा के निर्देशों का पालन नहीं करते हैं तो मोहल्ला सभा को उन्हें अपने पद से वापस बुलाने का अधिकार होगा।
  • यदि स्थानीय सरकारी कर्मचारी मोहल्ला सभा के निर्देशों का पालन नहीं करते हैं तो मोहल्ला सभा को उनका वेतन रोकने या उन पर ज़ुर्माना लगाने का अधिकार होगा। उदाहरण के लिए यदि कोई जूनियर इंजीनियर खराब सड़क बनवाता है, पार्क का माली ठीक से काम नहीं करता है, सफाईकर्मी ठीक से काम नहीं करता है अथवा सरकारी स्कूल में अध्यापक ठीक से नहीं पढ़ाता है तो मोहल्ला सभा इनके खिलाफ एक्शन लेने के लिए अधिक्रत होगी।
  • मोहल्ला सभा इलाके से सम्बंधित जूनियर इंजीनियर, हैड मास्टर, राशन दुकानदार, सफाई सुपरवाईज़र, पार्क माली, मेडिकल सुपरिटेंडेंट स्तर तक के अधिकारियों को सम्मन करने के लिए अधिक्रत होंगी।
  • यदि राशन वाला ठीक से राशन नहीं देता है तो मोहल्ला सभा उसकी दुकान का लाइसेंस रद्द कर नए व्यक्ति को इसका लाइसेंस देने के लिए अधिक्रत होगी।

अधिकार एवं कर्तव्य

  • मोहल्ला सभा यह सुनिश्चित करेगी कि उसके इलाके में कोई व्यक्ति बेघर या भुखमरी का शिकार न हो, मोहल्ले में सभी के लिए स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध् हों और कोई बच्चा शिक्षा से वंचित न रहे।
  • वार्ड समिति के भी अधिकार एवं दायित्व, अपने वार्ड के संदर्भ में, उपरोक्त अनुसार ही होंगे। साथ ही वार्ड समिति के सभी फैसलों को उस क्षेत्र की मोहल्ला सभा से अनुमति/मंजूरी लेना ज़रूरी होगा।
  • किसी भी इलाके से कोई झुग्गी झोपड़ी तब तक नहीं हटाई जा सकेगी जब तक कि सरकार वहां रहने वाले लोगों के लिए सरकारी नीतियों के अनुसार पुनर्वास के इंतज़ाम नहीं करती है। ऐसे इंतज़ामात के बारे में प्रभावित क्षेत्र की मोहल्ला सभा का संतुष्ट होना ज़रूरी होगा।
  • दिल्ली क्षेत्र में आने वाले सभी गांवों में ग्राम सभा की ज़मीन पर पूर्णत: ग्राम सभा का ही नियंत्रण होगा।

नगर निगम और राज्य विधानसभा पर अधिकार

  • कोई भी मोहल्ला सभा, दो तिहाई बहुमत से प्रस्ताव पारित कर, दिल्ली नगर निगम को किसी मुद्दे पर विचार करने के लिए कह सकेगी तथा नगर निगम इस पर विचार करने के लिए बाध्य होगा।
  • यदि दिल्ली की 67 प्रतिशत मोहल्ला सभाएं कोई प्रस्ताव पारित करती हैं तो दिल्ली नगर निगम और दिल्ली सरकार उसे मानने व लागू कराने के लिए बाध्य होगी। यह प्रस्ताव किसी कानून में बदलाव के लिए भी हो सकता है।

दिल्ली

जनता जब निर्णय लेती है तो काम किस तरीके से और किस तेजी से होते हैं, इसकी मिसाल स्वराज के तहत त्रिलोकपुरी और मयूर विहार में चल रही मोहल्ला सभा के जरिए देखी और समझी जा सकती है। दिल्ली के इस इलाके में लोक और तंत्र के बीच की दूरी खत्म करने के लिए चल रहे इस अभियान को ठीक से दो महीने भी नहीं हुए हैं लेकिन इसके जो परिणाम सामने आए हैं, उससे लोगों को एक नई उम्मीद बंधी है।

यहां के स्थानीय लोगों को अब अपने छोटे-छोटे कामों के लिए दिल्ली नगर निगम के कार्यालय के चक्कर नहीं काटने पड़ते। और न ही व्रद्धावस्था या विधवा पेंशन पाने के लिए बाबुओं का मुंह ताकना पड़ता है। जरूरतमंद लोगों की सूची और उनको पेंशन इन मोहल्ला सभाओं में ही वितरित की जा रही है। हर महीने होने वाली मोहल्ला सभा की बैठक में जनता की समस्याओं से ताल्लुक रखने वाले अधिकारी और कर्मचारी हाजिर होते हैं, लोगों की समस्याएं सुनते हैं और उन्हें हल करते हैं। उन्हें काम करना पड़ता है क्योंकि मोहल्ला सभा की अगली बैठक में उन्हें किए गए काम की रिपोर्ट देनी होती है।

मोहल्ला सभा की सफलता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि त्रिलोकपुरी में मोहल्ला सभा की बैठकों के बाद-

सूनी देवी को मयूर विहार में 12 सितंबर को हुई मोहल्ला सभा की बैठक में वृद्धावस्था पेंशन का चैक मिल गया। इसके लिए उन्हें भागदौड़ नहीं करनी पड़ी।

  • 250 लोगों की व्रद्धावस्था पेंशन बांधी गई है।
  • त्रिलोकपुरी की गलियों और सड़कों के सिमेंटीकरण के लिए 1 करोड़ का काम मोहल्ला सभा की बैठकों में पास हुआ और आज लगभग हर गली का सीमेंटीकरण हो चुका है।
  • ब्लॉक 34 में रहने वाली शीला देवी को अपनी बेटी की शादी के लिए सहायता राशि के रूप में 20 हजार रुपये मोहल्ला सभा के प्रयासों से ही मिले हैं। इसके लिए उनका आवेदन लगभग साल भर से लंबित था।
  • पॉकेट 3 के निवासियों को पहले सफाई व्यवस्था को लेकर काफी शिकायतें थीं। मोहल्ला सभा की 25 जुलाई की पहली बैठक के बाद इलाके के प्रत्येक घर में सम्बंधित सफाई कर्मियों की लिस्ट उनके नाम और फोन नंबर के साथ दे दी गई। 12 सिंतबर को हुई बैठक में लोगों ने सफाई व्यवस्था में संतुष्टि जाहिर की। स्पष्ट तौर पर यह मोहल्ला सभा की बैठक के बाद सफाई कर्मियों पर पड़े दबाव का ही नतीजा था।

हलाकि मोहल्ला सभा की पहली बैठक में लिए गए निर्णय के अनुसार कुछ काम तकनीकि खामियों के कारण नहीं हो पाए। मसलन-

`ऐसी बैठकों से निगम के लोगों का जनता से आमना-सामना हो जाता है, जो चीजें हमारी जानकारी में नहीं आ पातीं, उनका पता भी यहां चलता है। ऐसी बैठकें नागरिकों और निगम कर्मचारियों दोनों के लिए फायदेमंद है´ ....अरविंद कुमार (एएसआई, एमसीडी)

  • फेस 1 में पेट्रोल पंप के पास कूडेदान नहीं बन पाया। पार्षद ने बताया कि कूडेदान के निर्माण के लिए टेंडर जारी हो चुका है लेकिन अभी कोई ठेकेदार यह काम करने को तैयार नहीं है।
  • इसी तरह नालियों को ढकने की बात भी पहली बैठक में की गई थी। पार्षद ने अगली बैठक में जानकारी दी कि नालियों को ढकने का कार्य स्वीकृत हो गया है, डीएसआरसी के स्लब रेट तय होने के साथ ही कार्य शुरू हो जाएगा।

पॉकेट 3 के रेजिडेंट वेलफेयर एसोसिएसन के सचिव रामपाल वासुदेव बताते हैं- `पहली मोहल्ला सभा में जो निर्णय लिए गए थे, उसके ज्यादातर काम हो गए हैं। क्षेत्र को इन मोहल्ला सभा से काफी फायदा पहुंच रहा है। अब हमें अपने काम करवाने के लिए यहां-वहां नहीं भागना पड़ता। मोहल्ला सभा में हमारी समस्याओं को समाधान हो रहा है।´

ऐसा नहीं है कि इन मोहल्ला सभाओं की बैठक में सिर्फ क्षेत्रीय निवासी शरीक होते हैं बल्कि लोगों की समस्याओं से ताल्लुक रखने वाले नगर निगम के अधिकारी एवं कर्मचारी शामिल होते हैं।

`पहली मोहल्ला सभा में जो निर्णय लिए गए थे, उसके ज्यादातर काम हो गए हैं। क्षेत्र को इन मोहल्ला सभा से काफी फायदा पहुंच रहा है। अब हमें अपने काम करवाने के लिए यहां-वहां नहीं भागना पड़ता। मोहल्ला सभा में हमारी समस्याओं को समाधान हो रहा है।´ ...रामपाल वासुदेव, (निवासी, मयूर विहार)

ऐसी ही एक बैठक में आए दिल्ली नगर निगम के एएसआई अरविंद कुमार मोहल्ला सभा के कांसेप्ट को एक सराहनीय कदम मानते हैं। उनका कहना है कि ऐसी बैठकों से निगम के लोगों का जनता से आमना-सामना हो जाता है, जो चीजें हमारी जानकारी में नहीं आ पातीं, उनका पता भी यहां चलता है।स्वराज अभियान के कार्यकर्ता सुरेश कुमार का अधिकांश समय मोहल्ला सभा की गतिविधियों में ही गुजर रहा है। सभी समस्याओं का समाधान उन्हें स्वराज में ही नजर आता है। उनका कहना हैं कि त्रिलोकपुरी के एमसीडी स्कूल के एक शिक्षक को तो अपना काम ठीक से न करने पर बर्खाश्त भी किया जा चुका है।

मेंढ़ा लेखा गांव

महाराष्ट्र के गढ़ चिरौली का एक गांव मेंढ़ा लेखा जहां के लोगों का कहना है कि अपने गांव में हम स्वयं ही सरकार हैं। और दिल्ली, मुंबई की सरकार हमारी सरकार है। यानि इनके लिए सरकार का मतलब सिर्फ राज्य और देश की राजधानी में बैठे चंद नेता नहीं हैं, बल्कि यहां के लोगों की खुद की एक सरकार है और यहीं असली सरकार राज चलता है।

धनोड़ा तहसील में बसे मेंढ़ा गांव में गोंड आदिवासियों के 84 परिवार (2007 तक जनसंख्या 434) हैं। भारत के अन्य गावों की तरह इस गांव की भी अपनी समस्याएं है लेकिन एक मामले में गांव सबसे अलग है। और वो है गांव के विकास से जुड़े मामलों में निर्णय लेने की प्रक्रिया। 1996 से यहां के सारे निर्णय गांव वाले मिल-जुल कर खुद ग्राम सभा (गांव-समाज सभा) में करते हैं। किसी भी निर्णय पर पहुंचने से पहले गांव वाले सम्बंधित समस्या का गहन अध्ययन करते हैं। इसके लिए बकायदा एक अध्ययन केंद्र भी बनाया गया है।

मूलत: यह गांव एक वन क्षेत्र है और गांव वालों की निर्भरता भी इन्हीं वन संसाधनों पर है। गांव वालों को 1950 में ही राज्य सरकार से एक अधिकार मिला था जिसे निस्तारण पत्राक कहते हैं और यह राजस्व दस्तावेज के तौर पर पटवारी के रिकार्ड में दर्ज होता था। जिसके मुताबिक वन प्रबंधन का अधिकार गांव वालों के हाथ में आ गया था। बाद में सरकार ने इसे वापस ले लिया। गांव के लोगों ने इसके खिलाफ एक लंबी लड़ाई लड़ी। अंत में लोगों ने वन सुरक्षा समिति बना कर 16000 हेक्टेयर में फैले वन का प्रबंधन अपने हाथ में ले लिया। साथ ही जंगल से मिलने वाले संसाधनों के बदले एक पैसा भी नहीं देने का फैसला किया। इसके अलावा ग्राम सभा में ये फैसला लिया गया कि कोई भी बाहरी आदमी या सरकारी अधिकारी बिना ग्राम सभा की अनुमति के जंगलों का किसी भी रुप में इस्तेमाल नहीं कर सकता।

गांव वालों को जब लगा कि फल, फूल, पत्तियों या शहद के लिए पेड़ की कटाई अनुचित है तो ग्राम सभा में ये तय किया गया कि यदि कोई पेड़ काटता है तो उस पर 150 रुपये का जुर्माना लगाया जाएगा।

जंगलों में बांस की कटाई रोकने के लिए मेंढ़ा लेखा की ग्राम सभा ने पेपर मिल को अपने क्षेत्र में आने से मना कर दिया। इसके लिए उन्होंने चिपको आंदोलन भी चलाया। गांव में शराबबंदी के लिए आम सहमति बन सके इसलिए एक साल तक इंतजार किया गया। ग्राम सभा में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाई गई।
इस गांव के गोंड आदिवासियों की एक परंपरा थी। गोतुल जिसमें जवान लड़के-लड़कियां एक जगह मिलते थे। गांव के प्रभावशाली (जो आदिवासी नहीं थे) लोगों ने इस प्रथा को बंद करवा दिया था। लेकिन जब ग्राम सभा को लगा कि यह प्रथा उनकी सामाजिक-सांस्कृतिक संस्था थी, तो उसे फिर से लागू करने का निर्णय लिया गया।

इस गांव में एक नेता विपक्ष भी होता है जो ग्राम सभा के हरेक प्रस्ताव का विरोध् करता है। लेकिन गाव वाले उस व्यक्ति को दुश्मन नहीं अपना दोस्त समझते हैं क्योंकि यहीं वो आदमी है जो ग्राम सभा के प्रस्तावों में त्रुटियों को पहचानता है और ग्राम सभा को बताता है। इस गांव की ग्राम सभा में निर्णय बहुमत के बजाए पूर्ण सहमति के आधार पर लिया जाता है, चाहे इसके लिए कितना भी इंतजार क्यों न करना पड़े।

हिवरे बाज़ार गाँव

गांव का हर घर खुशहाल है। गांव के हर घर गुलाबी रंग में रंगा है। गांव की गलियां हर वक्त इस तरह सज़ी रहती हैं मानो कोई त्यौहार मनाया जा रहा है। गांव के सरकारी स्कूलों और आंगनवाड़ी केंद्रों की हालत शहर के जाने माने प्राईवेट स्कूलों से बेहतर है। हालांकि ये खुशनुमा माहौल कोई पुरानी बात भी नहीं है। 1972 में यहां सूखा पड़ा था, इसके बाद लगातार सूखा पड़ा और गांव कभी उठ नहीं पाया। महज़ 20 साल पहले तक यानि 1989 तक यहां के लोग उन तमाम कष्टों से जूझ रहे थे जिनमें हम आज देश के किसी भी अन्य गांव के लोगों को जूझते देख सकते हैं। लड़ाई झगड़ा, जाति पांत का बंटवारा, गुटबाज़ी,
हर तरह की बीमारी यहां थी। गांव में इतनी शराब बनती थी कि पड़ोसी गांवों में भी सप्लाई होती थी। गांव के युवा मोहन चतर का कहना है कि जब हम गांव से बाहर जाते थे लोग हमें हिवरे बाज़ार का कहकर चिढ़ाते थे। गांव में शायद ही कोई सप्ताह बीतता होगा जब फौजदारी के लिए पुलिस न बुलानी पड़ती हो। गांव में 90 फीसदी आबादी गरीबी रेखा से नीचे थी। आज यहां महज़ तीन परिवार बीपीएल हैं। गांव की प्रति व्यक्ति औसत आय 28 हज़ार रुपए सालाना हो चुकी है जो 1989 में महज़ 842 रुपए थी। आज गांव की ज़मीन के नीचे 10-15 फुट पर अच्छा पानी उपलब्ध् है जबकि 1989 में 50 फुट पर भी मुश्किल से पानी मिलता था।

२० साल में ही गांव के इतना खुशहाल बन जाने की कहानी स्वराज की कहानी है। बीस साल पहले गांव के 25-30 युवाओ ने फैसला लिया गांव के इन हालात को बदला जाए। उन्होंने मिलकर पहले गांव के नेताओं को समझाने की कोशिश की, लेकिन जब वे नहीं माने तो गांव के ही एक युवा पोपटराव पंवार को एक साल के लिए वहां का सरपंच बनवा दिया। पवार ने इन युवाओं के साथ मिलकर सबसे पहले गांववालों को अपने साथ जोड़ने का काम शुरू किया। गांव में ग्राम पंचायत को एक भी फैसला लेना होता तो तमाम गांववालों को बैठक के लिए बुलाया जाता। नतीज़ा यह हुआ कि गांववाले पंचायत के काम को अपना काम समझने लगे। बस फिर क्या था। स्कूल के लिए ज़मीन चाहिए थी तो कुछ परिवारों ने अपनी ज़मीन दे दी। स्कूल के लिए कमरा बनवाना था तो सरपंच सहित पूरे गांव के लोगों ने श्रमदान किया। दूसरी तरफ इन युवाओं ने स्कूल में अध्यापको की कमी भी पूरी कर दी। जिसके पास जितना समय था स्कूल में पढ़ाने के लिए देने लगा। इन प्रयासों को देख गांववालों की समझ में आ गया कि उनके गांव का भविष्य अब ठीक हो सकता है। तब गांववालों ने मिलकर निर्णय लिया कि पोपटराव पंवार को ही सरपंच बनाए रखा जाए। तब से लेकर आज तक 20 साल से पोपटराव पंवार ही गांव की प्रधनी संभालते

आ रहे हैं। उनका दावा है कि आज उनके गांव में जो कुछ दिख रहा है वह सब गांववालों ने मिलकर तय किया है, बनाया है। गत 20 सालों में पंचायत ने सिर्फ गांववालों के फैसलों को अमल में लाने का काम किया है।

अंगणवाडी, हिवारे बाज़ार

गांव में अंदर जाने के लिए स्वागत द्वार बना है। स्वागत द्वार से अंदर आते ही नज़र आती है ग्राम संसद यानि गांव की चौपाल। इसकी इमारत देखने में संसद जैसी बनाई गई है। यहां बैठकर पूरा गांव फैसले लेता है कि किस योजना के पैसे से क्या काम कहां कराया जाए। स्कूल, आंगनवाड़ी, राशन दुकान, अस्पताल के सभी कर्मचारी हर महीने होने वाली ग्राम सभा की बैठक में लोगों के सवालों के जवाब देने के लिए उपस्थित रहते हैं। पोपटराव पंवार मानते हैं कि ग्राम सभा में फैसले लेने से उनका अपना विज़न भी बढ़ा है और काम आसान हुआ है।

पिछले बीस साल में ग्राम सभा में कई ऐसे फैसले लिए गए हैं जो अगर दिल्ली या मुंबई में बैठी सरकारों ने लिए होते या खुद सरपंच और उनके सहयोगियों ने लिए होते तो गांववालों से उन पर अमल करवाना संभव ही नहीं था। इसके लिए ज़रूरत पड़ती है तो महीने में चार-चार ग्राम सभाओं की बैठकें भी बुलाई जाती हैं। उदाहरण के लिए -

गांव में पानी की कमी थी, सूखा पड़ता था इसलिए गांव वालों ने मिलकर जगह चैकडैम बनाए, पानी का स्तर थोड़ा बढ़ा तो फैसला लिया गया कि किसान गन्ना, केला आदि नहीं उगाएंगे क्योंकि ये फसलें पानी अधिक सोखती हैं। आज भी गांव में गन्ने और केले की खेती नहीं होती। गांव में लोगों के बकरी पालने पर प्रतिबंध् लगाया गया क्योंकि बकरियां जंगल में पौधें को चर जाती है। गांव के एकमात्र मुस्लिम परिवार के लिए मज्जिद बना कर देने का फैसला ग्राम सभा में लिया गया। गांव के जिन लोगों ने ग्राम सभा की ज़मीन पर कब्ज़ा कर लिया था उनसे ज़मीन छुड़वाना आसान काम नहीं था लेकिन ग्राम सभाओं में इस मुद्दे को बिना किसी मुकदमे के सुलझा लिया गया और पूरी ज़मीन से अवैध् कब्ज़े हटवा कर उसमें से कुछ गांव के गरीब परिवारों को दे दी गई। ऐसे न जाने कितने फैसले हैं जिनके दम पर आज गांव खुशहाल है। दुनिया भर से लोग आज इस गांव को देखने आते हैं। इतने पुरस्कार मिल चुके हैं कि गिनना मुश्किल है। लेकिन बाकी है तो ये पुरस्कार के देश का हर गांव, हर शहर हिवरे बाज़ार की तर्ज पर अपने लोगों के हिसाब से चले। लोग तय करें और सरकारें उस पर अमल करें। तो न भ्रष्टाचार बचेगा और न भाई-भतीज़ावाद। तभी होगा गाँधी के सपनों का सच्चा स्वराज।

(हिवरे बाज़ार गांव पर 25 मिनट की एक फिल्म बनी है, इसकी प्रति मंगाने के लिए आप 09968450971 नंबर पर संपर्क कर सकते हैं। यह फिल्म गांव में जब सब लोग साथ मिलकर देखते हैं तो उनके अंदर अपने गांव को भी बेहतर बनाने की इच्छा जागृत होती है और लोग मिलकर इस दिशा में काम करने का फैसला भी लेते हैं)

क्या है स्वराज?

ग्राम सभा और मोहल्ला सभा बनें सबसे ताकतवर
स्थानीय स्तर पर आम लोगों की सभा को सरकारी धन, काम और कार्यकारिणी पर पूरा अधिकार दिए जाने की जरुरत है। शहरी और ग्रामीण इलाकों में ऐसा मंच दिए जाने की जरुरत है जहां लोग मिल बैठ कर सामूहिक रुप से निर्णय ले सकें और जो निर्णय स्थानीय अधिकारियों के लिए बाध्यकारी हो।

हमारी व्यवस्था में मजबूत केंद्र और राज्य सरकारें हैं, जो केंद्र और राज्य स्तर के मुद्दों से निपट सकती है। इसी प्रकार, स्थानीय स्वशासन की तरह स्थानीय मुद्दों पर काम करने के लिए ग्रामीण इलाकों में पंचायत और शहरी इलाकों में नगरपालिकाएं बनाई गई थीं लेकिन सत्ता में आने वाले दल इन संस्थाओं को अपने हिसाब से चलाने लगते है जिससे ये संस्थाएं अपने असली मकसद से भटक गई हैं।

उदाहरण के लिए, उत्तर प्रदेश में जहां पंचायतों की औसत जनसंख्या औसतन 15000 है, 2008 में कुल प्रति पंचायत 5 लाख रुपये से भी कम फंड मिला। अब भला इतने पैसों से कोई पंचायत क्या और कैसा विकास कर सकती है? इससे तो दो सड़कें भी नहीं बनाई जा सकतीं। एक तरफ तो स्थानीय स्तर पर काम करने के लिए पंचायतों को पैसा नहीं दिया जा रहा है वहीं केंद्र और राज्य सरकारें स्थानीय समस्याओं को भारी-भरकम योजनाओं के सहारे खत्म करने की कोशिश करती हैं। जाहिर है, इससे काम नहीं चल सकता। पूरे देश में, यहां तक कि राज्यों में भी इतनी अधिक भौगोलिक, सांस्कृतिक और आर्थिक विविध्ता है कि हर इलाके में लोगों की स्थानीय ज़रूरतों को पूरा करने के लिए अलग अलग तरह की व्यवस्था की ज़रूरत है। शासन का एक ही स्वरुप सभी जगहों के लिए उपयुक्त नहीं हो सकता। पंचायत और नगरपालिका को तत्काल प्रभावकारी स्थानीय स्वशासन संस्था के रूप में बदलने की ज़रूरत है। इससे लोग अपनी रोजमर्रा की समस्याओं का समाधन खुद कर सकेंगे, साथ ही राज्य और केंद्र से जुड़े मुद्दों पर अपनी आवाज़ भी उठा सकेंगे। तब लोग इतने असहाय भी नहीं होंगे। हम इस बारे में आश्वस्त हैं कि नक्सलवाद सहित देश की बहुत सारी समस्याओं से निजात पाने का यही एकमात्र तरीका है।

सत्ता सीधे जनता के हाथ में हो
स्वशासन के लिए बनी किसी भी संस्था की सफलता के लिए पहली शर्त तो यही है कि उसमें सत्ता सीधे लोगों के हाथ में होनी चाहिए न कि चुने हुए कुछ लोगों के हाथ में।
सवाल यह उठता है कि क्या आम लोगों की सभा में फैसले लिए जा सकते है? जी हां! बिल्कुल लिए जा सकते हैं। बशर्ते कि इस तरह की बैठकें कराने के लिए कानून ठीक तरह से बनाए जाएं। स्विटज़रलैंड, ब्राज़ील और अमेरिका में आज स्थानीय लोग अपनी स्थानीय स्तर की व्यवस्था इसी तरह चलाते हैं। यहां तक कि प्राचीन भारत में इसी तरह की व्यवस्था रहती थी।

स्वराज की अवधारणा: शंका एवं समाधान

ठाकुरदास बंग

गाँधीजी ने स्वराज के वर्षो पूर्व 1909 में ही हिन्द स्वराज जैसी छोटी-सी किताब लिखकर अपनी कल्पना के स्वराज का चित्र खींचा था। स्वराज प्राप्ति के लिए उन्होंने नैतिक साधनों का इस्तेमाल का व्यापक आंदोलन किया। लेकिन गाँधीजी के हत्या से यह संभव नहीं हो पाया।

पाश्चात्य लोकतांत्रिक देशों में चुनाव के साथ-साथ प्रबल लोकमत-ध्र्मसंस्था, विद्यापीठ, श्रमिक संगठन, प्रेस इत्यादि शक्तियों द्वारा शासन की मनमानी पर चतुर्विध् अंकुश लगाने का काम होता है। भारत की लोकशाही में इसका अपेक्षाकृत अभाव है। चुनाव के लिए राजनीतिक दलों द्वारा लगने वाला खर्च सरकार द्वारा किया जाना, सानुपातित प्रतिनिधित्व (प्रपोर्शनल रिप्रेजेंटेशन), प्रतिनिधि का वापस बुलाने का अधिकार, मतदाता को अभिक्रम का अधिकार, आममत आदि अनेक माध्यमों से कुछ देशों में लोकशाही की मनमानी पर अंकुश रहता है।

लोकतंत्र के दो प्रकार हैं। पहला केन्द्रित प्रतिनिधिक लोकतंत्र। यहां चुनाव में जीते हुए लोक प्रतिनिधि शासन की सारी सत्ता निहित होती है। उसे वापस नहीं बुलाया जा सकता। दूसरा, विकेन्द्रित सहभागी लोकतंत्र इसमें ज्यादा से ज्यादा सत्ता नीचे की ईकाई के पास होती है। यानी ग्रामसभा नगरपालिका के पास होती है। केन्द्र यानी संसद या विधानसभा के हाथ में कम से कम सत्ता रहती है। संपूर्ण विकेन्द्रित लोकतंत्र तो संभव ही नहीं है क्योंकि सुरक्षा, विदेश नीति, दूसरे देशों के साथ कार्य व्यवहार,अनेक नीचे की ईकाईयों के कार्यों का समन्वय, देश में एक प्रकार की मुद्रा का प्रचलन इत्यादि विषयों में एक गांव (या नगर) क्या कर सकेगा? एकसूत्रता साघने और समन्वय बिठाने का कार्य भी केन्द्र के पास ही स्वाभाविक रूप में रहेगा। लेकिन बचे हुए सारे विषय और उनके कारोबार का अधिकार प्राथमिक ईकाई के पास रहने चाहिए। इससे काम ठीक होगा, जल्दी होगा, मितव्ययितापूर्ण और भ्रष्टाचार से मुक्त होगा और सामान्य व्यक्ति की पहुंच के भीतर होगा। भारत के लोगों को इसका अनुभव प्रतिदिन होता ही है।

शंका-समाधान

1. शंका: इससे केन्द्र कमजोर होगा। केन्द्र के अधिकार क्षेत्र में विषय कम करने से केन्द्र कमजोर होगा, ऐसी शंका अनेक लोग प्रकट करते हैं।

समाधान: परिणाम ऐसा नहीं होगा क्योंकि लोगों को अपनी शासन व्यवस्था स्वयं करने को अधिकाधिक स्वतंत्रता दी जाए तो वे राष्ट्र के रूप में कहीं अधिक एकताबद्ध और शक्तिशाली होंगे। भारत में रहने वाले भिन्न-भिन्न समुदाय अधिक प्रेम से एक साथ रह सकेंगे। अपने विषय अपने हाथ में केन्द्रित करने वाले बलवान राष्ट्र का बाहरी रूप ही बलवान होने का भास होता है। ऐसे केन्द्र को अंदर से अनेक तरह के दबावों और तनावों के बीच काम करना होता है। उसे विघटित होकर बिखर जाने का खतरा बना रहता है। इस तरह का बलवान केन्द्र लोकतंत्र से धीरे-धीरे दूर और अधिकाधिक सर्व सत्तावादी होता जा रहा है। विकेन्द्रीकरण से केन्द्र निर्बल हो जाएगा, यह तर्क गलत है। निर्वाचित सत्ता हर स्तर पर कार्य करती है जिसके लिए वह सक्षम है। जो विषय उसकी क्षमता से बाहर हैं उन्हें ही ऊपर के स्तर पर सौंपे जाते हैं। इसलिए यह क्षमता का प्रश्न बन जाता है। विषयों की संख्या किसी इकाई के पास ज्यादा हों तो वह बलवान होती है, ऐसा नहीं है। ऊपरी स्तर पर भारी-भरकम और फैला हुआ केन्द्र, जो हर विषय पर अपनी टांग अड़ाता हो, देखने में भले ही मजबूत मालुम पड़े लेकिन वास्तव में होगा कमजोर, खोखला, मंदगति और निकम्मा। राष्ट्रीय एकता और शक्ति इस बात पर निर्भर नहीं है कि केन्द्रीय सरकार के अधिकार क्षेत्र के विषयों की सूची कितनी बड़ी है, बल्कि भावनात्मक एकता, जनता के समान अनुभव, आकांक्षाएं, सहिष्णु और सबसे अधिक राष्ट्रीय नेताओं की विशाल हृदयता आदि स्थायी तत्वों में निहित है।

2. शंका: पिछडे़ गांव के नागरिकों को सत्ता देना गलत है। अपना शासन स्वयं करने की योग्यता उनमें नहीं है।

समाधान: ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि सदियों तक ग्रामीण जनता को कुछ विषयों में मजबूरन पिछड़ी हालत में रखा गया है। तथापि शहर के चुने हुए तबके के लोगों से किसी भी अर्थ में नैतिकता या बुद्धि की दृष्टि से वे पिछड़े हुए नहीं हैं। यदि इसे मान भी लिया जाए तो भी इस इस कारण उन्हें स्वशासन के अधिकार से वंचित रखना गलत, अलोकतांत्रित और धृष्टतापूर्ण होगा। गुलाम भारत को अधिकार देने के बारे में अंग्रेज यही तर्क देते थे। आखिर सुराज्य, स्वराज का विकल्प नहीं हो सकता। तथाकथित पिछड़ी देहाती जनता पलटकर आगे बढ़े हुए शहरी शिक्षितों से यह सवाल नहीं पूछ सकती कि क्या वे राष्ट्र का शासन सफलतापूर्वक कर सके हैं? अवश्य की विकेन्द्रीकरण द्वारा सत्ता मिलने पर गलतियां होंगी। लेकिन, पहले तो उत्तरदायित्व को निभाने के लिए स्वशासन की योग्यता और आवश्यक क्षमता प्राप्त की जा सकती है। फिर पिछडे़पन का इलाज जनता को उसके सार्वभौम अधिकारों से वंचित रखना नहीं, बल्कि जितना शीघ्र हो सके उसे शिक्षित और जागृत करना है।

3. शंका: ऐसा होगा तो गांव पीछे जाएंगे।

समाधान: विकेन्द्रीकरण के कारण गांवों में परंपरागत सुविध-संपन्न एवं बलवान वर्ग अपना प्रभुत्व स्थापित करेगा, तो गांव फिर से पीछे जाएंगे। लेकिन इसका इलाज जनता पर अविश्वास करना और लोकतंत्र के दायरे से आगे बढ़ने से रोकना नहीं है। बल्कि स्वयं विकेन्द्रीकरण के ढांचे में ऐसी सुरक्षात्मक व्यवस्था कर दी जाए, जिससे नेतृत्व करने वालों के लिए समाज के पिछड़े और निर्बल लोगों को ऊपर उठाना अनिवार्य बना दे।

4. शंका: कार्य असंभव है। इनता बड़ा की लगभग असंभव-सा कार्य कैसे हो सकेगा।

समाधान: इसका उत्तर यह है कि हर असंभव-सा कार्य करने से पहले असंभव ही लगता है। प्रारंभ करने के बाद वह हो जाता है, उसकी इतिहास गवाही देता है। शस्त्राविहीन राष्ट्र ने शांतिपूर्ण उपायों द्वारा स्वतंत्रता कैसे प्राप्त की? देशी राज्यों को राष्ट्र के रूप में कैसे समाहित कर लिया गया? चांद पर पहुंचने का असंभव कार्य मानव ने किस प्रकार कर दिखाया? इसलिए निराश होने की जरूरत नहीं है, बल्कि प्रयत्नों की पराकाष्ठा करने की आवश्यकता है।

5. शंका: बढ़ती हुई बेकारी, आर्थिक विषमता, वैश्वीकरण, प्रदूषण और सांप्रदायिकता इत्यादि चुनौतियों का जवाब कौन देगा? ऐसा आज के नेता और सरकार कैसे करेंगे?

समाधान: इसकी राह हम देखते रहे तो परिवर्तन हो चुका। इन्हीं राजनीतिक और आर्थिक स्वार्थों ने तो इन चुनौतियों को पैदा करने की आग लगाई है। इनमें से कुछ लोग की अपवादस्वरूप निकलेंगे, जिन्हें खोना नहीं है। लेकिन ऐसे सारे समूहों से यह अपेक्षा करना निरा भोलापन होगा। इस कार्य की पहल स्वयं ही करनी होगी। डॉक्टर ही दवाई पी ले तो रोगी स्वस्थ नहीं होगा। इसलिए परिवर्तन की पहल स्वयं का करनी होगी। विनोबा हमेशा कहते थे- आज संसार में देइज्म चलता है। यानि उपाय सरकार करे या अन्य कोई करे-हम नहीं। सर्वोदय का प्रतिपादन है कि हम इसे करेंगे। हम वीइज्म के उपासक बनें।

साभार: लोक-स्वराज

क्यों, क्या और कैसे?

स्वराज का मेरे लिए क्या अर्थ है


…. मुझे भारत को केवल अंग्रेजों की पराधीनता से ही मुक्त कराने में दिलचस्पी नहीं है। मैं भारत को सभी प्रकार की पराधीनताओं से मुक्त कराने के लिए कटिबद्ध हूं। मुझे एक शासक के स्थान पर दूसरे शासक को लाने की जरा भी इच्छा नहीं है।
(हरिजन, 18 अप्रैल 1936)

…. सच्चा स्वराज मुट्ठी भर लोगों के द्वारा सत्ता प्राप्ति से नहीं आएगा, बल्कि सत्ता का दुरूपयोग किए जाने की सूरत में, उसका प्रतिरोध् करने की जनता की सामर्थ्य विकसित होने से आएगा।
(यंग इंडिया, 10 फरवरी 1927)

….स्वराज का अर्थ है सरकार के नियंत्रण से मुक्त होने का सतत प्रयास, यह सरकार विदेशी हो अथवा राष्ट्रीय।
(यंग इंडिया, 10 मार्च 1927)

प्राचीन भारत में लोकतांत्रिक व्यवस्था का स्वरूप

स्वशासन के लिए बनी किसी भी संस्था की सफलता के लिए पहली शर्त तो यही है कि उसमें सत्ता सीधे लोगों के हाथ में होनी चाहिए न कि चुने हुए कुछ लोगों के हाथ में।
सवाल यह उठता है कि क्या आम लोगों की सभा में फैसले लिए जा सकते है ? जी हां! बिल्कुल लिए जा सकते हैं। बशर्ते कि इस तरह की बैठकें कराने के लिए कानून ठीक तरह से बनाए जाएं। स्विटज़रलैंड, ब्राज़ील और अमेरिका में आज स्थानीय लोग अपनी स्थानीय स्तर की व्यवस्था इसी तरह चलाते हैं। यहां तक कि प्राचीन भारत में इसी तरह की व्यवस्था रहती थी।

प्राचीन भारत में ग्राम सभाएं
भारत में लंबे समय से विचार विमर्श के आधार पर लोकतंत्र को चलाने की परंपरा रही है, जिसमें समान हित वाले लोगों के समूह आपस में बातचीत, सलाह और मतदान के जरिए अपने मामलों में निर्णय लेते थे। बुद्ध के समय में भी, हालांकि उस वक्त राजा के लिए चुनाव नहीं होते थे और राजा का बेटा ही राजा बनता था, शासन से जुड़े रोजमर्रा के निर्णय ग्राम सभाओं में ही होते थे। राजा ग्राम सभा के निर्णय का सम्मान करता था।

सिद्धार्थ गौतम (जो बाद में बुद्ध बने) शाक्यों के राज्य कपिलवस्तु के राजकुमार थे। शासन का मुखिया राजा ही होता था लेकिन `संघ´ नाम की एक लोकतांत्रिक संस्था के जरिए ही राज्य के मामलों पर निर्णय लिया जाता था। 20 साल से ऊपर के प्रत्येक शाक्य युवक संघ में भागीदारी करते थे। सिद्धार्थ भी इस उम्र में आने के बाद संघ की कार्यवाही में हिस्सा लेने लगे थे। जब सिद्धार्थ 28 साल के थे तभी शाक्य और पड़ोसी राज्य कोलिया के बीच रोहिणी नदी के पानी के बंटवारे को लेकर संघर्ष शुरू हो गया। यह नदी दोनों राज्यों की सीमा निर्धरित करती थी। कोलिया पर आक्रमण करने से पहले शाक्य सेनापति ने संघ की बैठक बुलाई। जैसी कि उम्मीद की जा सकती है, सिद्धार्थ ने युद्ध का विरोध् किया और विवाद का शांतिपूर्ण तरीके से हल निकालने का प्रस्ताव दिया। लेकिन संघ के अन्य सदस्यों ने न सिर्फ इसका विरोध् किया बल्कि मतदान के जरिए युद्ध का समर्थन भी किया।
इतना ही नहीं इसके बाद संघ ने लोकतांत्रिक शक्ति का परिचय देते हुए कदम उठाए। समर्थन मिलने के बाद सेनापति ने पूरे राज्य में घोषणा करवा दी कि 20 से 50 साल के सभी शाक्स, कोलिया के खिलाफ युद्ध के लिए तैयार हो जाए। सिद्धार्थ ने ऐसा करने से मना कर दिया। सिद्धार्थ का यह निर्णय, संघ में प्रवेश के समय लिए जाने वाले शपथ के विरुद्ध था। अत:, संघ सदस्य के रूप में अपनी जिम्मेवारी से मुकरने के कारण सिद्धार्थ को कपिलवस्तु छोड़ने की सजा दी गई।युद्ध के बारे में संघ के निर्णय को लेकर असहमति जताई जा सकती है लेकिन कपिलवस्तु में लोकतंत्र की सचाई को भी स्वीकार करना होगा। लोगों की सामूहिक ताकत के आगे एक राजकुमार की बातों का कोई महत्व नहीं था।

बुद्ध साहित्य में से सबसे पुरानी महा-परिनिर्वाण-सुतांता के अनुसार बुद्ध प्रजातांत्रिक मूल्यों को ले कर प्रतिबन्ध थे। इस संबंध् में एक कहानी भी है। मगध् का राजा अजातशत्रु लिच्छवी गणराज्य को जीतना चाहता था। उसने अपने मंत्री वसाकारा को भेज कर बुद्ध की राय जानने और यह पूछने को कहा कि क्या वो अपने मकसद में सफल हो सकता है। बुद्ध ने मंत्री को सीधे कुछ न कहते हुए अपने शिष्य आनंद से कहा,

`आनंद , क्या तुमने सुना है कि लिच्छवी गणराज्य में पूर्ण और निरंतर आम सभा की बैठक होती है?´
आनंद ने कहा, `हां भगवान, , मैने ऐसा ही सुना है।´
तब बुद्ध ने कहा कि लिच्छवी में जब तक आम सभाएं और इसकी बैठक जारी रहेंगी, इस राज्य में सिर्फ समृद्धि ही आएगी, कभी इसका पतन नहीं होगा।

एक स चे और समृद्धि समुदाय के लिए, बुद्ध आम सभा का होना आवश्यक मानते थे, चाहे वो धर्मनिरपेक्ष हो या धर्मिक। इस सब में बुद्ध न्याय और धर्म के प्रति अपने व्यक्तिगत विचारों की बात नहीं करते। इसका आधार प्राचीन भारत की वह लोकतांत्रिक परंपरा है जिसमें बड़े पैमाने पर राजनीतिक अधिकार के बंटवारे की बात है। साथ ही जिस परंपरा में नियंत्रण और जोर-जबरदस्ती के बजाए बातचीत के माध्यम से शासन चलाने की संकल्पना है।

सुंदरवरदा मंदिर

भारतीय इतिहास में स्थानीय स्तर पर लोकतंत्र की मजबूती का एक और तथा पुख्ता उदाहरण कांचीपुरम जिले में स्थित उत्तीरामेरुर केकी दीवारों पर दर्ज है। इस मंदिर की दीवार पर सातवी शताब्दी के मध्य में प्रचलित ग्राम सभा व्यवस्था का सविधान लिखा है, इसमें चुनाव लड़ने के लिए आवश्यक योग्यता, चुनाव की विधि, चयनित उम्मीदवारों के कार्यकाल, उम्मीदवारों के अयोग्य ठहराए जाने की परिस्थितियां और लोगों के उन अधिकारियों की भी चर्चा है जिसके तहत लोग अपने जन प्रतिनिधि वापस बुला सकते थे। यदि ये जन प्रतिनिधि अपनी जिम्मेवारियों का निर्वहन ठीक से नहीं करते थे।

ग्राम सभाओं के पास न्यायिक और कार्यकारी शक्तियां थी। ग्राम सभा अपराधियों और निकम्में जन प्रतिनिधियों जुर्माना लगाने और वसूलने के लिए अधिकृत थीं। चुने गए जन प्रतिनिधियों पर ग्राम सभा की नजर रहती थी, जिसमें गांव के अधिसंख्य लोग और स्वयं जन प्रतिनिधि भी शामिल रहते थे।

उपलब्ध् रिकॉर्ड के मुताबिक गांव वाले खुद जन सेवाओं से जुड़े नियम और कानून पास करते थे। जैसे-सोने की गुणवत्ता की जांच, उच्च शिक्षण संस्थान, गांवों के तालाब का रख-रखाव इत्यादि। प्रत्येक जन सेवा को विभिन्न समुदायों के लोगों से बनी समितियों के हवाले कर दिया जाता था। इसमे लोगों की विशेषज्ञता और समिति के लोगों के साथ भेद-भाव न हो, इस बात का विशेष ध्यान रखा जाता था।

लोकतांत्रिक सभ्यता का सबसे पुराना उदाहरण ऋग्वेद काल यानि प्राचीन भारत में भी मिलता है। वैदिक काल में गांव, प्रशासन की आधार इकाई थी। राज्य में भले ही राजशाही थी। लेकिन उस वक्त भी सभा और समिति नाम की दो लोकतांत्रिक संस्थाएं थीं। सभा आदिवासियों की चुनी हुई संस्था थी जबकि समिति में सभी आदिवासी लोग शामिल होते थे, जो किसी विशेष अवसर पर इकट्ठे होते थे। सभा और समिति राजा की शक्तियों पर नियंत्रण रखने का काम करती थी। ऋग्वेद में भी सभा और समिति को हिंदु देवता प्रजापति की बेटियों के रुप में दर्जा प्राप्त था।

रामायण में भी राम के राज्याभिषेक के लिए राजा दशरथ और एक समिति के बीच चर्चा का उल्लेख है। इसके बाद प्राचीन भारत में कई सारे गणतंत्र हुए जिनमें कुछ तो ईसा पूर्व छठी शताब्दी से भी पहले और कुछ बुद्ध के जन्म से भी पहले के थे। ये गणराज्य महा जनपद के नाम से जाने जाते थे। इनमें वैशाली को (वर्तमान में भारत का एक राज्य, बिहारद्) विश्व का पहला गणतंत्र होने का गौरव प्राप्त है।भारत में इस्ट इंडिया कंपनी के आने से पहले हिंदु, मुस्लिम और पेशवा शासन के जमाने तक ग्रामीण गणराज्य फल-फूल रहे थे। राजवंशों के विघटन और साम्राज्यों के उतार-चढ़ाव का कभी इन पर फर्क नहीं पड़ा। स्थानीय शासन के स्वतंत्र विकास से गांवों को एक ऐसा कवच मिला था जहां राष्ट्रीय संस्कृति जब-तब उठने वाले राजनीतिक बवंडर से खुद अपनी रक्षा कर सकती थी। राजा गांवों से केवल राजस्व प्राप्त करता था और आमतौर पर स्थानीय शासन में हस्तक्षेप नहीं करता था। इस पर सर चाल्र्स ट्रेवेलिन की टिप्पणी काफी महत्वपूर्ण है, `एक के बाद एक विदेशी आक्रांताओं ने भारत पर आक्रमण किए लेकिन गांव की स्वशासन व्यवस्था अपने जमीन से इस तरह चिपकी रही जैसे मिट्टी से घास।´ 1830 में भारत के तत्कालीन कार्यवाहक गवर्नर जनरल सर चाल्र्स मेटकॉफ ने लिखा,
`ग्रामीण समुदाय गणतांत्रिक हैं और उनके पास वो सब कुछ है जिसकी उन्हें जरुरत है और ये गांव किसी भी विदेशी संबंध् से मुक्त हैं। कई राजे-महाराजे आए और गए, क्रांतियां होती रहीं लेकिन ग्रामीण समुदाय इस सब से अछूता रहा। ग्रामीण समुदायों की शक्तियां इतनी थी मानो सब के सब अपने आप में एक अलग राज्य हों, मेरे विचार से तमाम आक्रमणों और बदलाव, जो यहां के लोगों ने सहे हैं, के बीच भी भारतीय लोगों के बच पाने का मुख्य कारण भी यहीं रहा। जिस तरह की आज़ादी और स्वतंत्रता में यहां के लोग प्रसन्नता से जी रहे हैं, उसमें प्रमुख योगदान इस (व्यवस्था) का ही है। मेरी इच्छा है कि गांवों के इस सविधान को कभी छेड़ा न जाए और हर वह खतरा जो इस (व्यवस्था) को तोड़ने की दिशा में ले जाता हो, उससे सविधान रहा जाए।´

लेकिन दुर्भाग्यवश ऐसा नहीं हो सका। ईस्ट इंडिया कंपनी की दुर्भावना और लालच ने धीरे धीरे इन गावों को तोड़ दिया। ब्रिटिश नौकरशाहों के हाथ में सारी कार्यकारी और न्यायिक शक्तियों के चले जाने के कारण गांव अपने सदियों पुराने अधिकार और प्रभाव से वंचित हो गए।

डॉक्टर एनी बेसेंट के मुताबिक, अधिकारियों ने नाम तो पुराने ही रखे लेकिन पुरानी पंचायत गांव वाले खुद ही चुनते थे और ये गांव वालों के प्रति जवाबदेह होती थीं। अब अधिकारी अपने से बड़े अधिकारियों के प्रति जवाबदेह हो गए हैं, उनका हित अपने साहब को खुश रखने में समाहित है। उन्हें जनता की कोई फ़िक्र नहीं है।

दुर्भाग्यवश स्वतंत्रता के बाद भी हम उसी व्यवस्था को बनाए हुए हैं जिसे अंगे्रजों ने लागू किया था।

कैंसे ठीक होंगी सडकें

गांवों और शहर के भीतरी इलाकों की सड़कें इतनी खराब स्थिति में है कि इन्हें तत्काल ठीक करने की जरुरत है। पैसे की कमी के चलते ये सड़कें खराब नहीं है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि कुछ सड़कों की मरम्मत तो एक साल में कई-कई बार की जाती है वही कुछ पर ध्यान भी नहीं दिया जाता या उनके बनाने में घटिया सामग्री लगती है। सूचना अधिकार कानून से मिली जानकारी के मुताबिक बहुत सी सड़कें तो केवल कागज पर ही बनाई जाती हैं, लेकिन फिर भी दोषी अधिकारियों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की गई। अंदर की सड़कों को ग्राम सभा या मोहल्ला सभा के हवाले कर देना चाहिए। लोग यह निर्णय करें कि किस सड़क की मरम्मत सबसे पहले करनी है। ठेकेदार का भुगतान तब तक नहीं किया जाना चाहिए जब तक मोहल्ला सभा की खुली बैठक में लोग उसके द्वारा किए गए काम को पास न कर दें। अगर इसमें भ्रष्टाचार का कोई मामला प्रकाश में आता है तो मोहल्ला सभा के पास दोषी अधिकारी को सस्पेंड करने, वेतन रोक लेने या उस पर जुर्माना लगाने का अधिकारी होना चाहिए। मोहल्ला सभा चाहे तो पुलिस को एफआईआर दर्ज करने के लिए भी कह सकती है।

कैसे दूर होगी गरीबी और बेरोजगारी

गरीबी हटाने और रोजगार पैदा करने के लिए केंद्र और राज्य स्तर पर हमारे पास सिर्फ और सिर्फ योजनाएं हैं। पिछले साल भारत सरकार ने विभिन्न योजनाओं के माध्यम से गरीबी निर्मूलन के लिए 151460 करोड़ रुपये आवंटित किए हैं। भारत के महालेखाकार (कैग)के अनुसार इसमें से ज्यादातर पैसा गैर सरकारी संगठनों और सरकारी एजेंसियों के माध्यम से खर्च किया जा रहा है। इसके अलावा ये रुपया 8 अलग-अलग योजनाओं में बांट दिया गया मानों इस देश के लोगों की समस्याएं महज 8 प्रकार की हैं।

जब तक पैसा एक स्लम या एक गांव तक पहुंचे तब तक प्रशासनिक खर्च में ही बहुत सारा पैसा बर्बाद हो जाता है। सूचना के अधिकार के तहत मिली जानकारी के मुताबिक एक जिलें में शौचालय निर्माण के लिए आबंटित पैसा जिला प्रशासन की गाड़ियों, टेलीफोन और अन्य सुविधाओं पर खर्च कर दिया गया।

समाधान यही है कि पूरा पैसा सीधे गांव में भेज दिया जाए और लोग अपनी आवश्यकताओं के अनुरुप उन पैसों को खर्च करें। लोग खुद ये निर्णय लें कि पैसों को किस तरह खर्च करना है। हरेक गांव के भूखे और बेघर लोगों की एक सूची तैयार कर ली जाए। ऐसे लोगों की तत्काल मदद की जा सकती है। मुफ्रत बांटने के बजाए ऐसे लोगों पंचायत कार्य करवाए जा सकते हैं। इसके अलावा ग्राम सभा ऐसे लोगों को रोजगार उपलब्ध् कराने के लिए भी प्रयास कर सकती है। अगर ग्राम सभा को पर्याप्त फंड मिले तो ग्राम सभा लोगों को छोटे मोटे धंधे करने के लिए लघु कर्ज उपलब्ध् कराने का भी निर्णय ले सकती है।

ऊपर से आने वाली योजनाओं ने लोगों को भिखारी बना दिया है। गांव और स्लम में हरेक आदमी सरकार से कुछ मुफ्रत पाने की इच्छा रखने लगा है। इसे बदलना होगा। हरेक नागरिक को निर्णय प्रक्रिया, योजना निर्माण में हिस्सेदारी करनी होगी और अपने दायित्व का निर्वहन करना पड़ेगा।

कैसे सुधरेगी शिक्षा

शिक्षा व्यवस्था में आज लोगों को मुख्यत: चार प्रकार की समस्याएं नज़र आती हैं – स्कूलों में सुविधाओं की कमी, अध्यापकों की कमी, उनका अनुपस्थित रहना और जो आते हैं उनका ठीक से न पढ़ाना।

अभी स्कूल में सुविधाए देने का काम केंद्र और राज्यों की सरकारें तय करती हैं। एक स्कूल में वास्तव में आवश्यकता क्या है, उसे कमरा चाहिए या डेस्क या पंखा। किसी भी अधिकारी के लिए मुख्यालयों में बैठकर हरेक स्कूल के लिए यह तय करना मुश्किल है। अगर यह काम उस मोहल्ले या गांव के लोग करेंगे, जहां यह स्कूल है तो वास्तविक ज़रूरतों को समझना, उनकी प्राथमिकताएं तय करना और उन्हें सही कीमत पर खरीदना आसान हो जाएगा। इसी तरह शिक्षकों के न होने, अनुपस्थित रहने या ठीक से न पढ़ाने की समस्या भी सुलझ सकती है। आज अगर कोई असंतुष्ट अभिभावक शिकायत करना चाहे तो वह ज्यादा से ज्यादा प्रधनाचार्य या अधिकारियों को चिट्ठी लिख सकता है। लेकिन आज सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले ज्यादातर बच्चे गरीब या अशिक्षित परिवारों से होते हैं। अत: इनकी शिकायतों को भी कूड़े के डब्बे में फेंक दिया जाता है। अगर कहीं कोई अधिकारी अच्छा भी है तो अपने नीचे के अधिकारियों और शिक्षकों का सहयोग नहीं मिलता।

स्वराज व्यवस्था के लिए ग्राम या मोहल्ला सभा के पास यह अधिकार होना चाहिए के लोग सीधे नाकारा अध्यापकों के खिलाफ कार्रवाई का फैसला ले सकें। मध्य प्रदेश में 2002 में ग्राम सभाओं को ऐसा अधिकार मिला है और इसका फायदा यह हुआ है कि बड़ी संख्या में शिक्षा कर्मी और अध्यापक अपना काम ठीक से करने लगे हैं। लेकिन यह ध्यान रखने वाली बात है कि यह अधिकार ग्राम सभा के पास होना चाहिए न कि सरपंच के पास। क्योंकि सरपंच को अधिकार देने में, उसके भी भ्रष्ट होने की संभावनाएं बनी रहती हैं।

कैसे सुलझेंगे जमीन और उद्योग के मुद्दे

जमीन का मामला धीरे-धीरे एक गंभीर मुद्दा बनता जा रहा है। पिछले दिनों जमीन के चलते ही देश के कई हिस्सों में कानून-व्यवस्था की स्थिति बिगड़ी है। इससे कोई इंकार नहीं कर सकता कि उद्योग के लिए जमीन जरुरी है। लेकिन पिछले दिनों जिस तरह से भूमि अधिग्रहण हुआ है उससे कई गंभीर सवाल उठते हैं।

छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा के नजदीक टाटा के एक प्लांट के लिए दस गांवों की जमीन के अधिग्रहण की जरुरत थी। यह एक पेसा (PESE) क्षेत्र था इसलिए राज्य सरकार के लिए स्थानीय लोगों से सलाह करना कानूनी तौर पर जरुरी था। इलाके की ग्राम सभाओं ने अपनी जमीन देने से मना कर दिया। जब सरकार ने पुनर्विचार करने को कहा तो ग्राम सभाओं ने जमीन के बदले 13 मांगे सामने रखीं। ये सभी मांगे जायज थीं। इन मांगों को स्वीकार करने के बदले सरकार ने जबरन जमीन अधिग्रहण कर लिया।

क्या गांव वालों के पास ये अधिकार नहीं होना चाहिए कि वो खुद उद्योगपतियों से जमीन के बदले मिलने वाली सुविधाओं, पैसे और शर्तों के बारे में बातचीत करे। अगर ऐसा होता है तो उद्योगपति भी गांव वालों के प्रति जिम्मेदार हो जाएंगे और ग्राम सभा के निर्णय का सम्मान करेंगे। उपरोक्त व्यवस्था लागू हो जाए तो गावों के बीच अपने यहां उद्योग लगाने के लिए होड़ मच जाएगी। उद्योगपति चाहें तो लोगों को रोजगार दे सकते हैं। ऐसे काम कर सकते हैं जिससे पर्यावरण को लाभ पहुंचे और ग्रामीण समुदाय का भला हो सके। यदि उद्योगपति किसी भी शर्त का उल्लंघन करते हैं तो ग्राम सभा के पास उसका लाइसेंस निरस्त करने का अधिकार होना चाहिए। इस तरह उद्योगपति हमेशा गांववालों के प्रति जिम्मेवार बने रहेंगे।

वर्तमान में जमीन अधिग्रहण से ले कर शर्त इत्यादि तय करने का काम राज्य सरकारें कर रही हैं। अत: उद्योगपति भी खुद को गांववालों के बजाए नौकरशाह और नेताओं के प्रति जवाबदेह समझने लगते हैं।

कैसे सुधरेगी स्वास्थ्य व्यवस्था

स्वास्थ्य व्यवस्था में भी शिक्षा की तरह की ही खामियां हैं जिनके चलते आम आदमी दुखी है। भारत जैसे देश में जहां की आधी से ज्यादा आबादी गरीबी रेखा के नीचे है, स्वास्थ्य व्यवस्था को निजी लाभ के लिए कंपनियों के हवाले नहीं किया जा सकता। अच्छी बात ये है कि हमारे पास एक बड़ा सरकारी स्वास्थ्य तंत्र है लेकिन निराशाजनक ये है कि इसमें बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार और कामचोरी है।

प्राथमिक स्वास्थ्य केद्रों (पीएचसी), दवाखानों आदि में डाक्टर और नर्सें नहीं हैं। इनकी नियुक्ति राज्य स्तर पर होती है। यदि पीएचसी में तत्काल कर्मचारियों की आवश्यकता होती है तो पीएचसी प्रभारी सिर्फ अपने ऊपर के अधिकारियों को लिखित में इसकी सूचना दे सकता है। ऊपर के स्तर तक पहुंचते-पहुंचते ये पत्र नौकरशाहों की मेज पर कहीं खो जाता है। और इस सब का खामियाजा भुगतना पड़ता है आम आदमी को। समाधान यही है कि जरुरत पड़ने पर ग्राम सभा खुद नियुक्ति कर ले। नये कर्मचारी को नियुक्त करने का अधिकार ग्राम सभा के पास होना चाहिए न कि सरपंच के पास जो किसी को नियुक्त करने के बदले घूस ले सकता है। ग्राम सभा नामों के चयन के लिए एक कमेटी बना सकती है। अंतिम निर्णय ग्राम सभा की एक खुली बैठक में लिया जा सकता है। जिला स्तर पर इस तरह का काम जिला पंचायत कर सकती है जो सीधे-सीधे इलाके की ग्राम सभाओं के प्रति जवाबदेह होगी।

इस तरह डॉक्टरों के काम पर न आने और मरीजों के साथ ठीक से व्यवहार न करने की समस्या भी सुलझ जाएगी जब उन्हें पता होगा कि मरीज़ अपनी ग्राम या मोहल्ला सभा की में प्रस्ताव रखकर मेरे खिलाफ कार्रवाई करवा सकता है।

सरकारी अस्पतालों में हमेशा ज़रूरी मशीनों और दवाओं की कमी रहती है। इनकी़ खरीदारी प्राय: राज्य स्तर पर होती है। अगर यह स्थानीय स्तर पर हो और इसके लिए ग्राम सभा के पास फंड हो तो अस्पताल प्रशासन अपनी आवश्यकताओं को लेकर ग्राम सभा की बैठक में जा सकता है। ग्राम सभा चाहे तो फैसला लेने के लिए विशेषज्ञों की सहायता ले सकती है। इससे न सिर्फ लोगों को दवाएं उपलब्ध् हो पाएंगी बल्कि अनावश्यक खर्च होने वाला पैसा भी बचेगा। यदि अचानक कोई महामारी फैलती है तो ग्राम सभा को तत्काल कोई कदम उठाने का अधिकार हो। वर्तमान व्यवस्था में प्रशासन जब तक कोई ठोस कदम उठाए तब तक कई लोग अपनी जान से हाथ धो बैठते हैं।

कैसे सुलझेंगे लोगों की समस्याएं

आज देश में लगभग हर आदमी के पास सरकारी दफ्रतरों के चक्कर काटने के किस्से मौजूद हैं। आदमी पढ़ा लिखा हो या अनपढ़, सरकार से एक जायज़ प्रमाण पत्र लेने तक में उसके पसीने छूट जाते हैं। आम आदमी चाहे राशन कार्यालय, पीडब्लूडी कार्यालय, बिजली विभाग, जल आपूर्ति विभाग, परिवहन कार्यालय, नगर निगम, पुलिस, सरकारी अस्पताल या पेंशन या सामाजिक सुरक्षा विभाग या किसी भी सरकारी दफ्रतर में जाएं उसे हमेशा भ्रष्टाचार, शोषण और कर्मचारियों की अक्षमता से जूझना पड़ता है।

सरकार की बहुत सी सेवाएं ठप पड़ी हैं। टूटी सड़कें, कूड़े के ढेर, सीवरों से बाहर बहता पानी, काम से नदारद अध्यापक और डॉक्टर और सरकारी दफ्रतरों में दलालों का बोलबाला इसका सबूत है।

स्वराज व्यवस्था में ग्राम सभा या मोहल्ला सभा के पास सरकारी कर्मचारियों के खिलाफ सम्मन जारी करने, उनसे सवाल करने और उनके अच्छे-बुरे कामों के लिए उन्हें जिम्मेदार ठहराने का अधिकारी होना चाहिए। इससे एक नागरिक ग्राम या मोहल्ला सभा की बैठक में अपनी शिकायत रख सकने में सक्षम होगा। बैठक में इन अधिकारियों को सम्मन जारी कर बुलाया जाएगा और उन्हें अपना काम करने को कहा जाएगा।

मध्य प्रदेश के पंचायती राज कानून के मुताबिक 8 अलग-अलग सरकारी कर्मचारियों की उपस्थिति ग्राम सभा की बैठक में अनिवार्य है। ये 8 कर्मचारी हैं – पटवारी, ग्राम सेवक, शिक्षक, राशन दुकानदार, नर्स, आंगनवाड़ी कार्यकर्ता, आशा (प्राथमिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता) और नाकेदार (वन कर्मचारी, जहां जंगल है) हैं। प्रत्येक जन सेवक को सारे रिकॉर्ड और अपने कामों का लेखा-जोखा ग्राम सभा में प्रस्तुत करना होता है।

2002 में मध्य प्रदेश सरकार ने ग्राम सभा को ठीक से काम न करने वाले कर्मचारियों का वेतन रोक सकने का अधिकार भी दे दिया। जहां-जहां भी ग्राम सभा ने इस अधिकार का प्रयोग किया वहां व्यापक असर दिखने लगा। एक गांव में आंगनवाड़ी कार्यकर्ता अपने काम पर आती ही नहीं थी। ग्राम सभा की एक बैठक बुलाई गई और आंगनवाड़ी कार्यकर्ता को बुलाकर उससे पूछा गया कि पिछले दो महीने में वो कितने दिन अपने काम पर आई है? पूरे गांव के सामने वो झूठ नहीं बोल पाई। उसे मानना पड़ा कि पिछले दो महीने में उसने सिर्फ दो दिन ही काम किया है। लोगों ने उससे मिड-डे मील के पैसे के बारे में पूछा। उसे ये स्वीकार करना पड़ा कि मिड-डे मील फंड का उपयोग उसने खुद के लिए कर लिया है। यह सुन कर कुछ लोगों ने उसे नौकरी से हटाने की मांग की। लेकिन कुछ बुजुर्ग लोगों ने बीच-बचाव करते हुए कहा कि नौकरी से हटाना कोई समाधान नहीं है, कोई ऐसा रास्ता निकाला जाए जिससे यह महिला अपना काम ठीक से करने लगे। अंत में ये निर्णय हुआ कि उक्त महिला को एक महीने का समय दिया जाए। अगर इस बीच उसमें सुधर हो जाता है तभी उसे आगे काम करने दिया जाएगा। और एक महीने के भीतर सचमुच उस आंगनवाड़ी कार्यकर्ता में सुधर दिखने लगा।

यदि ग्राम सभा को उपरोक्त अधिकार नहीं मिले होते तो स्थिति क्या होती, इसकी बस कल्पना ही की जा सकती है। तब लोग सिपर्फ बड़े अधिकारियों के पास शिकायत करते और वो अधिकारी या तो उस शिकायत को कूड़े के डब्बे में फेंक देता या ज्यादा से ज्यादा एक विभागीय जांच का आदेश दे देता जिससे कुछ होने वाला नहीं है।

अन्य देशों में स्वराज

हमने जो शासन व्यवस्था अपनाई है उसमें सत्ता के केंद्र बिन्दु ऊपर हैं और वह नीचे लोगों की तरफ आते आते पूरी तरह अप्रभावी, अक्षम और भ्रष्ट साबित हुई है। इसी क्रम में एक बार अन्य देशों की शासन प्रणाली को देखने और समझने की कोशिश भी करते हैं, देखते हैं कि क्या उससे भी कुछ सीखा जा सकता है।

अमेरिका

अमेरिका में कस्बा या शहर स्तर के मामलों में फैसले स्थानीय नागरिक सभा द्वारा ही लिए जाते है। कोई योजना लागू की जाएगी या नहीं, सरकारी अधिकारी ठीक से काम कर रहे हैं या नहीं इत्यादि के संबंध् में शहर के लोगों की आम सभा टाउन हॉल में बातचीत के जरिए फैसले लेती है। स्थानीय सरकार कोई योजना बनाने से पहले, योजना लागू करने से पहले और योजना के पूरा होने के बाद वहां रहने वाले प्रत्येक परिवार को एक लिखित नोटिस भेज कर उनकी राय मांगती है। मोहल्ले में रहने वाले लोगों की लिखित सहमति के बिना एक फुटपाथ तक का निर्माण नहीं किया जा सकता। जन शक्ति के ऐसे कई दिलचस्प उदाहरण यहां देखने को मिलते हैं।

अमेरीका के ओरेगोन में वाल मार्ट (डिपार्टमेंटल स्टोर चेन) एक स्टोर खोलना चाहता था। ओरेगोन के लोगों ने टाउन हाल में बैठक कर ये निर्णय लिया कि वाल मार्ट यहां अपनी दुकान नहीं खोल सकता, क्योंकि इससे स्थानीय पॉप एंड मॉम स्टोर्स के बंद हो जाने का खतरा हो सकता है और इससे बेरोजगारी बढ़ सकती है। इस तरह वाल मार्ट अपनी दुकान नहीं खोल सका। एक दूसरे शहर में भूमिगत रेलवे के निर्माण का प्रस्ताव था। इससे काफी लोगों के विस्थापन का खतरा था। लोगों ने बैठक कर इस परियोजना के विरुद्ध मतदान किया और अंतत: इस परियोजना को रोकना पड़ा।

कनाडा

कनाडा ने अभी-अभी आम लोगों को प्रत्यक्ष रुप से शासन में भागीदार बनाने का फैसला किया है। एक कनाडाई वेबसाइट के मुताबिक सरकार द्वारा यह निर्णय इसलिए लिया गया है क्योंकि वहां लोगों की सरकारी कामकाज में भागीदारी खत्म हो रही थी। नगर निगम के चुनावों में महज 30 से 40 प्रतिशत तक ही मतदान हो पाता था और राज्य स्तर पर तो यह और भी कम हो रहा था। पश्चिम के लोकतांत्रिक देशों में कनाडा में होने वाले मतदान का प्रतिशत सबसे कम पहुंच चुका था। सरकार और नेताओं में लोगों का विश्वास काफी कम हो गया था। लोगों ने निर्णय प्रक्रिया में शामिल किए जाने की मांग की थी लेकिन इस मामले में सरकार कभी-कभी लोगों से कुछ सलाह ले लिया करती थी। इससे लोगों का सरकार के प्रति विश्वास कम हो रहा था। इस लोकतांत्रिक कमी के चलते सामाजिक समस्याओं, आर्थिक समस्याओं और पर्यावरण को पहुंच रही हानि से निपटने में मुश्किलें आने लगी थी। इसके अलावा कनाडा के बहु सांस्कृतिक समाज के नागरिकों के बीच सामंजस्य में भी दिक्कतें आ रही थी। चूंकि ये सभी चुनौतिया सामूहिक प्रकृति है इसलिए इसका समाधन भी सामूहिक कार्रवाई से ही संभव है।

ब्राजील

ब्राजील में आम आदमी द्वारा मिल जुल कर बजट बनाने की प्रक्रिया काफी लोकप्रिय हो चुकी है। 1989 में वर्कर्स पार्टी ने पोर्ट अलेगे्र में इसकी शुरुआत की थी। शहर के लोगों का जीवन स्तर बढ़िया बनाने के लिए अपनाए गए सुधरों का एक हिस्सा बजट बनाने की यह प्रक्रिया भी थी। शहर की एक तिहाई जनसंख्या झुग्गियों में रहती थी और इनके पास सामान्य जन सुविधाएं (पानी, शौचालय, स्वास्थ्य सुविधाएं, स्कूल इत्यादि) भी उपलब्ध् नहीं थी।

बजट बनाने की यह प्रक्रिया साल में एक बार होती है जिसमें लोगों की सभाएं मोहल्लों, इलाकों और फिर शहर के स्तर पर होती हैं। स्थानीय लोग अपनी ज़रूरतों की प्राथिमकताएं तय कर यह फैसला करते हैं कि पैसा कहां खर्च करना है। पोर्ट अलेगे्र में हर साल 200 मिलियन डॉलर सिर्फ निर्माण और सेवा क्षेत्र पर खर्च किया जाता है और शहर के 50 हज़ार लोग इसका बजट बनाने की प्रक्रिया में हिस्सा लेते हैं। उल्लेखनीय है कि शहर की कुल आबादी करीब 15 लाख है। बजट बनाने के लिए होने वाली बैठकों में आने वाले लोगों की संख्या 1989 के बाद से लगातार बढ़ी है और इसमें विभिन्न आर्थिक, राजनैतिक पृष्ठभूमि से लोग आते हैं। नतीजा ये रहा कि 1989 से पोर्ट अलेगे्र के नगर निगम चुनावों में वर्कर्स पार्टी ने लगातार 4 बार जीत दर्ज की। 1988 में जहां इस पार्टी को 34 प्रतिशत वोट मिले थे वहीं 1996 में यह बढ़ कर 56 प्रतिशत हो गया। ये पूरे लैटिन अमेरीका में नगर निगम स्तर पर वामपंथी प्रशासकों की असफलता के खिलाफ आम लोगों की प्रतिक्रिया थी।

एक मशहूर बिज़नेस पत्रिका ने पोर्ट अलेगे्र शहर को लगातार चार बार रहन सहन के लिए ब्राज़ील का सर्वोत्तम शहर करार दिया है। 1989 से पहले इस शहर की वित्तीय स्थिति काफी कमजोर थी। इसकी वजह थी, खराब राजस्व प्रणाली, उद्योगों का न होना, भारी भरकम कर्ज में डूबी सरकारी मशीनरी। लेकिन 1991 तक वित्तीय सुधरों का प्रभाव साफ-साफ दिखने लगा था। और इस सब में आम लोगों की भागीदारी से बजट बनाने की प्रक्रिया की अहम हिस्सेदारी थी। 1989 से 1996 के बीच घर में पानी की उपलब्धता वाले परिवारों की संख्या 80 प्रतिशत से बढ़ कर 98 प्रतिशत हो गई। इसी तरह सीवेज सुविधा के मामले में यह प्रतिशत 46 से बढ़ कर 85 प्रतिशत और स्कूल में दाखिला पाने वाले बच्चों की संख्या दोगुनी हो गई। गरीब इलाकों में हरेक साल 30 किलोमीटर सड़कें बनाई गई। प्रशासन में पारदर्शिता के कारण अब लोग करों का भुगतान भी कर रहे थे, जिससे राज्स्व में 50 प्रतिशत की वृद्धि हो गई। अब ब्राजील के लगभग 80 शहर पोर्ट अलेगे्र मंडल को अपना रहे हैं।

पोर्ट अलेगे्र का प्रयोग लोकतांत्रिक जिम्मेवारियों का एक सशक्त उदाहरण प्रस्तुत करता है जिसमें समानता का भाव है। शुरुआत में वर्कर्स पार्टी को लेकर मध्य वर्ग सशंकित था लेकिन धीरे-धीरे शहर की बदलती हालत देख कर इन लोगों ने भी सक्रिय भागीदारी निभानी शुरु कर दी।

इस सब का एक बड़ा ही सुखद नतीजा ये रहा कि तकनीकी कर्मचारी, जिसमें बजट बनाने वाले से ले कर इंजीनियर तक शामिल थे, अब आम आदमी से जुड़ने लगे थे। इसे नौकरशाही तकनीक को लोकतांत्रिक तकनीक के रूप में बदलते देखा गया। यहां तक कि कर्मचारियों के आम लोगों के साथ बातचीत करने के तौर तरीकों में भी बदलाव दिखने लगा। सहभागिता से बजट बनाने की प्रक्रिया ब्राजील में शुरु हुई, लेकिन यह लैटिन अमेरिका के सैकड़ों शहरों में फैल गई। आज यह प्रक्रिया यूरोप, एशिया, अफ्रीका, और उत्तरी अमेरिका के कई शहरों में भी अपनाई जाने लगी है।